Tuesday, April 12, 2011

विश्वविद्यालय में रिक्शेः इक्कीसवीं सदी के भारत के नये प्रतीक

संजय कुमार

दिल्ली विश्वविद्यालय की सड़कों पर यह दृश्य बहुत आम है। इतना आम कि इसके बारे में कोई विशेष बात करना अजीब माना जा सकता है। दो मिली मीटर मोटी 64 तीलियों के तीन चक्कों के रिक्शा वाहन पर पर 18 से 22 वर्ष का का युवक या युवती सवार हैं।  सम्पन्न परिवार के युवक युवती आमतौर पर स्वस्थ होते हैं, वैसे ही यह सवारी भी है। स्वस्थ शरीर के साथ यौवन सुलभ सौन्दर्य व आकर्षण भी है, लिबास व सर के बालों पर लगे जैल  से लेकर पांवों के जूतों तक के चुनाव पर की गयी चेष्टायें इन दोनों को और बढ़ाती हैं। युवक/युवती का सारा ध्यान कान पर लगे सैल फोन पर चल रहे वार्तालाप पर है। उस वार्तालाप के साथ ही उसके चेहरे पर मुस्कान, हंसी या उत्तेजना आती है। उसके बिना चेहरा शून्य हो जाता है। यह स्वस्थ, सुन्दर, व सज्जित शरीर दिसम्बर की खिली  धुप में छात्रा मार्ग की की ढलान पर पन्द्रह किलोमीटर की रफ्रतार से गतिमान हैं, गालों की थपथपाती व बालों में घुसती ठन्डी हवा से चेहरा और चमक उठा है। युवक युवती से महज दो फुट दूर एक अन्य शरीर है, पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार से आये किसी देहाती का। इस शरीर की तनी मांसपेशियां युवक/युवती के गतिमान होने का कारण है। कद काठ व भार में यह शरीर युवक युवती से छोटा है, लेकिन आयु में औसतन उससे बड़ा। रिक्शा चालक के कपड़ों में कोई तरतीब ढूंढ पाना असंभव है। प्लास्टिक के काले जूतों के साथ लाल जुराबें, काली पतलून के साथ भूरा स्वेटर, जो कुछ जैसा जहाँ मिला पहन लिया। युवक/युवती का शरीर जितना विशेष प्रतीत होता है, रिक्शाचालक का उतना साधरण। सड़क की धुल मिट्टी का हिस्सा। रिक्शा पर स्थित दो मनुष्यों में एकमात्र संवाद भाड़े को लेकर होता हे, वर्ना वे दोनों अपनी अलग अलग दुनियाओं में गुम हैं।


जो चीज जिन्दगी का इतना आम हिस्सा हो उस पर चिन्तन ख्वामखाही लगना कोई गलत बात नहीं है! जो लोग समाज पर सूक्ष्म विचार रखने को दावा करते हैं, उनको रिक्शा चालक व सम्पन्न परिवार के युवक/युवती के बीच ठोस विषमताओं पर चिन्तन स्थूल शब्दाडम्बर लग सकता है। विशेषकर जब सवारी को रिक्शा मिलना व रिक्शा चालक को सवारी मिलना दोनों के लिये सन्तोष का कारण हो। असली मुद्दा लेकिन शायद यह सन्तोष ही है। वे कौन से सामाजिक मूल्य हैं जो एक दूसरे से अन्जान दो मनुष्यों में से एक को दूसरे द्वारा ढोने की क्रिया को पारस्परिक सन्तोष का कारण बना देते हैं? देश के कुछ अन्य शहरों जैसे चेन्नै में अगर ऐसे दृश्य पिछले पन्द्रह बीस सालों में दुर्लभ हो गये हैं तो खालिस समाज विज्ञान की दृष्टि से यह प्रश्न तो उठता ही हे कि वे कौन से कारण हो सकते हैं कि एक समाज में एक मनुष्य द्वारा दूसरे को ढोना आम बात है, जबकि दूसरे में असंभव। हर समाज मनुष्यों के बीच सम्बन्धें के बारे में कुछ मूल संभावनाओं व असंभवानाओं की मान्यताओं के आधर पर निर्मित होता है। एक जमाने में किसी मनुष्य द्वारा दूसरे को खरीदना व बेचना आम बात थी, आज ऐसी गुलामी संभावित रिश्तों की सीमाओं से बाहर है। अपराध् है।

आज की सामाजिक विचाधारा के कई ऐसे पक्ष हैं जो हमें हमारे समाज के रिश्तों की मूल मान्यताओं के बारे में बात करने में बाध डालते हैं। उदाहरण के लिये रिक्शाओं को लेकर प्रश्न्सनात्मक दावों की लम्बी पफेहस्ति है। सर्वोपरि मन्डी के तर्क का दावा है। रिक्शा चालक व सवारी के मध्य सम्बन्ध् खुला व पारदर्शी है, मन्डी के अन्य सम्बन्धें की तरह इसमें बेचने वाले व खरीदने वाले दोनों का भला है, वर्ना के खरीदते व बेचते ही क्यों। रोजगार से सम्बन्ध्ति एक दूसरा तर्क जो आर्थिक कलयाण की मान्यताओं से प्रेरित है। एक अकुशल देहाती के लिये रिक्शा चलाना शहरी अर्थव्यवस्था में रोजगार का एक बेहतरीन स्रोत है और दिल्ली के रिक्शा चालकों को दरिद्र नहीं कहा जा सकता। पचास रूपये प्रतिदिन के भाड़े पर रिक्शा चलाने वाले दो सौ से अध्कि दीहाड़ी बना लेते हैं। सर्दियों में सभी नकली ऊन का मफलर पहने दिखेंगे तथा नंगे पांव कोई भी नहीं। उनके भोजन में सम्पन्न लोगों की तरह सब्जी, दूध्, अन्डे व मांस नियमित बेशक न हों, लेकिन वे कुपोषण के शिकार नहीं हैं। अगर वे शहर में रिक्शा न चला पाते तो गांवों में उनकी हालत दयनीय होती है। भाडे पर रिक्शा लेकर चलाना प्रवासी देहातियों के लिए, जो शहरों में साल के कुछ महीने ही बिताते हैं, विशेष अनुकूल है। बस्तियों की तंग गलियों में बहुदा रिक्शा ही एकमात्रा यातायात के साधन हैं जिन्हें बूढें महिलाएं व बच्चे उपयोग में ला सकते हैं। आर्थिक तर्कों के अलावा पर्यावरण सम्बन्ध्ति तर्क भी रिक्शाओं के पक्ष में सुने जाते हैं। रिक्शा यातायात का प्रदूषण रहित साधन  है। इसकी कम गति से दुर्घटना होने की संभावना बहुत कम होती है।

इन सभी तर्कों में गलत या झूठ कोई भी नहीं। विशुध विचारधरा के विमर्श के समान इन तर्कों की सामाजिक उपयोगिता इस बात में नहीं है कि वे किन प्रश्नों के उत्तर हैं, बल्कि इस बात से है कि वे किन प्रश्नों को दबाने में सहायक होते हैं मसलन, मन्डी में खुला क्रय विक्रय समानता का सम्बन्ध् है। लेकिन रिक्शा चालक व सवार के बीच समान लगने वाला क्रय विक्रय होता ही इसलिए है कि इन दो व्यक्तियों की वास्तविक सामाजिक स्थिति घोर असमान हैं अगर देहाती रिक्शा चालक गरीबी का शिकार नहीं होता तो वह रिक्शा नहीं चलाता, तथा युवक/युवती रिक्शा पर सवार नहीं पाते अगर वे सम्पन्न परिवार से नहीं होते। मन्डी में समानता अगर एक तथ्य है तो, सामाजिक असमानता एक दूसरा। सुविधानुसार तथ्यों का चयन कहाँ तक जायज है। रिक्शा एक कार या आटो से कम प्रदूषण फैलाती है, लेकिन इससे भी कम प्रदूषण तब होता है जब रिक्शा की सवारी पैदल जाती है। जहाँ तक आर्थिक कल्याण की बात है तो ऐसा कतई नहीं है कि अगर चैन्नै जैसे दक्षिण भारतीय शहरों में रिक्शाओं का चलन नहीं है तो वहाँ के अकुशल मजदूरों का वेतन दिल्ली जैसे शहरों से कम है। बल्कि दक्षिण भारत के कई शहरों में रिक्शाओं का चलन न होना वहाँ की व्यापक सम्पन्नता का प्रतीक है, जो आबादी के एक चौथाई अमीर तबकों तक सीमित नहीं है। रिक्शाओं पर प्रशस्ति विमर्श आर्थिक कल्याण के चिन्तन का नहीं बल्कि बेईमान व अवसरवादी पोप्युलिस्म का संकेत है, जो एक घोर असमान समाज में आर्थिक कल्याण की बात करते हुए अकुशलता व गरीबी के विशियस चक्र को नजरअंदाज करता है। मनुष्यों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के बहुत से साधन हैं जिनमें एक मनुष्य की मांसपेशियां एक दूसरे स्वस्थ मनुष्य को ढोने का काम नहीं करती। जिन समाजों में रिक्शाओं का चलन बन्द हुआ है वह इसलिए हुआ कि वहाँ माना गया कि इनके उपयोग में ढोने वाला की मानवीयता का इस कद्र अपमान होता है कि उसे स्वीकारा नहीं जा सकता। अन्तिम बात मनुष्यों के बीच रिश्ते की है।

विश्वविद्यालय में रिक्शा की सवारी मन्डी के रिश्तों के आधर पर विलासिता का संकेत है। किसी भी समाज में व्यक्ति का विकास बचपन में अपनी हर छोटी बड़ी आवश्यकता के लिए माता-पिता व अन्य परिवार जनों पर निर्भरता से क्रमशः आत्मनिर्भरता के विकास की यात्रा होता है। लेकिन आयु के सामान्य विकासक्रम में बहुत सारी आवश्यकताओं के बारे में हम खुद जिम्मेवार होते चले जाते हैं व हमारे स्वायत्त व्यक्तित्व का विकास होता है। इक्कीसवीं सदी के भारत के सम्पन्न वर्गों के युवक/युवतियों दूसरे वर्गों से सम्बन्धें में सामन्ती विलासिता की अकर्मण्यता को सहज स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा क्यों है? युवक युवतियों की सामाजिक चेतना में वर्गीय फांके क्यों इस तरह गहरी हैं कि वे अपने से निचले वर्गों के मनुष्यों से इस प्रकार का अपमान जनक व्यवहार निःसंकोच कर लेते हैं जैसा वे अपने वर्ग के किसी सदस्य से करने से पहले सौ बार सोचेंगे। वास्तव में हमारे समाज में पिछले साठ साल से बुर्जुआ जनतंत्र की मौजूदगी के बावजूद एक पब्लिक स्पेस विकसित नहीं हुई है जिसमें सभी भारतीय समानता के आधार पर एक दूसरे व्यवहार करें।

स्वतंत्रता से पहले एक रियासत के राजा के बारे में यह चुटकला प्रचलित था कि वह इतना मोटा था कि पाखाने के बाद स्वयं को धो नहीं पाता था। उस बेचारे का हाथ ही नहीं पहुंचता था। दो नौकर उसके नीचे से गीला कपड़ा निकाल कर आरी से लकड़ी काटने जैसी क्रिया से उसे साफ करते थे। हट्टे कट्टे युवक युवतियों का रिक्शाओं पर ढोये जाने का आम प्रचलन इस बात का संकेत है कि इक्कीसवीं सदी के भारत की संस्कृति में रियासत के राजा की बात चुटकला नहीं है।

0 comments:

Post a Comment