Monday, April 18, 2011

हम बनाम वे: अकादमिक कारखाने में दुनियाभर के शिक्षकों तुम श्रमिक भी हो, संगठित हो शताब्दी के अंत में शिक्षा जगत के दस किस्से


 माइकल येट्स

पत्रिकाओं, अखबारों और मेरे परिचित ई-मेल विचार-विमर्श गु्रपों से चुनी हुई निम्नलिखित बातों पर गौर करें:

1. टोरन्टों की चाक यूनिवर्सिटी ने कम्पनियों से अनुरोध् है कि दस हजार डालर देकर वे यूनिवर्सिटी में चल रहे किसी भी कोर्सा में अपनी कम्पनी का लोगों लगा लें।

2. न्यूयार्क की सिटी यूनिवर्सिटी ने अपनी वे कक्षाएं समाप्त कर दीं जिनमें विशेष मदद का प्रबंध् था। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय ने कमजोर विद्यार्थियों ;गरीब और अश्वेतद्ध के लिए विशेष कार्यक्रम समाप्त कर दिए।

3. पिट्सबर्ग यूनिवर्सिटी ने, जिसे कम्पनियों और रक्षा विभाग से खूब ध्न मिलता हे, शिक्षकों के शैक्षिक अवकाश के प्रावधन उनसे बिना पूछे खत्म कर दिया है।

4. कई विश्वविद्यालयों ने क्रेडिट कार्ड कम्पनियों से कापफी दान लेकर उन्हें कैम्पस में एकाध्किार दे दिया है। एक जगह तो क्रेडिट कार्ड कम्पनी छात्रों के रेडियो-टी.वी. कार्यक्रमों के लिए ध्न देती है। 

5. पफीनिक्स की तथाकथित यूनिवर्सिटी, प्राइवेट और मुनापफे के लिए चलने वाली संस्था, एकतीस राज्यों में पंचानबे संस्थाएं चलाती है जिसमें पचपन हजार विद्यार्थी हैं। इसने सुविध, उपभोक्ता सेवा, भारती उत्पादन, तथा व्यवसायिक सहभागिता जैसी व्यापारिक रणीनीति को आक्रामक रूप से लागू किया है। उसके ग्राहक कोडक, आईबीएम, जनरल इलेक्ट्रिक जैसी कम्पनियां हैं जो उन लाखों वयस्क विद्यार्थियों के लिए प्रतिस्पर्धरत है जो लगातार नौकरियां बदलने की तैयारी में लगे हुए हैं।

6. कैलीपफार्निया स्टेट यूनिवर्सिटी का तंत्रा अपनी विभिन्न कैम्पसों के बीच के कम्प्यूटर सिस्टम को ‘माइक्रोसाफ्रट’ संचालित एक संगठन को सौपने की तैयारी में है। राज्य शिक्षा व्यवस्था का यह निजीकरण ;जो राजनीतिक विरोध् के चलते पिफलहाल रुक गया हैद्ध उन्हीं शक्तियों द्वारा उत्प्रेरित है जिन्होंने कूड़ा इकट्ठा करने से जेल व्यवस्था, शिक्षण संस्थाओं में कैन्टीन सेवा और कैम्पसों में पुलिस व्यवस्था तक हर क्षेत्रा में निजीकरण को आगे बढ़ाया है।

7. इतिहासकार डेविड नोबुल के अनुसार ‘एडूकाम’ अर्थात शिक्षा और व्यवसाय जगत के कन्सर्टियम ने ‘ल²नग इन्Úास्ट्रकचर एनिशिएटिव ‘स्थापित किया है जिसके कामों में शामिल है इसका विस्तृत अध्ययन कि प्रोपफेसर लोग करते क्या हैं। इसके लिए वह टेलर प्रणाली से शिक्षण को खंडित कर देखते हैं कि कौन से काम स्वचालित प(ति से हो सकते हैं और जिन्हें दूसरे भी कर सकते हैं। एडूकाम के अनुसार ‘कोर्स डिजाइन’ लेक्चर और मूल्यांकन का मानिकीकरण, यंत्राीकरण करके बाहरी एजेंसियों को सौंपा जा सकता है। एडूकाम के अध्यक्ष रॉबर्ट हेटेरिच का मानना है कि ‘आज का पर्यावरण व्यक्तिगत मानवी मध्यस्थता संचालित है।’ इसकी जगह स्वचालित कम्प्यूटरी नेटवर्क व्यवस्था की भारी गुंजाइश है। ऐसा होना ही है ;देखिए डिजिटल डिप्लोमा मिल्स मंथली रिव्यू पफरवी 1998द्ध

8. हाल ही में मैनहैटन न्यूयार्क के मिललेनियम ब्राडवे होटल में एक रात का 229 डॉलर ;दस हजार रूपया से ज्यादाद्ध किराया देकर एक सम्मेलन हुआ। विषयः मार्केट-ड्रिवेन हायर एजूकेशन ;बाजार नियंत्रित उच्च शिक्षाद्ध। इसके प्रचार में कहा गयाः यह व्यवसाय मात्रा नहीं आपका भविष्य है: क्या उच्च शिक्षा बाजार में खड़ी है? निश्चित ही। और हर कोई-शिक्षा बाजार में खड़ी है? निश्चित ही। और हर कोई-कम्पनियां, बिना लाभ कमाए काम करने वाली संस्थाएं ;स्वयं सेवी?द्ध सरकारी एजेंसियां, सभी उसका कुछ न कुछ प्राप्त कर लेना चाहती है। आप इस बाजार नियंत्रित शिक्षा से कैसे पफायदा उठाएंगे? इस सम्मेलन में ऐसी ऐसी विभूतियों ने हिस्सा लिया-बेन्नों श्मिट ;रयेल विश्वविद्यालय के पूर्व प्रेसिडेंट। उनके वक्तव्य का विषय था: व्हाट द मार्केट वांट्स ;बाजार क्या चाहता हैद्ध और द यूनिवर्सिटी टूल बाक्स, जिसमें मुनापफे, के लिए संस्थाएं खड़ा करना, शुरूआती पूंजी की व्यवस्था संरचना के लिए व्यवस्था, बौ(िक सम्पदा की समस्याएं हल करना आदि। उल्लेखनीय है कि आयोजकों ने भागीदारों से कहा कि ‘आप व्यवसाय करने, नए और संयुक्त व्यवसाय की संभावनाएं तलाशने, निवेशक क्या चाहते हैं, गृह मोर्चे पर प्रतिकार करने’ के नए तरीके सीख जाएंगे और ‘अपने सारभूत मूल्यों को सुरक्षित भी रख पाएंगे। ;जोर मेराद्ध

9. सिलिकॉन वैली में, कैम्ब्रिज में, डालसा में-सारे देश में, उद्योग और विश्वविद्यालयों का सम्मिलित होता जा रहा है- शिखक और प्रशासक राज्य के ध्न से संचालित शोध् से व्यवसाय कर रहे है और कम्पनियां अपने नए उत्पादों और प्रविध् िके लिए विश्वविद्यालयों को लांचिंग पैड बनाती जा रही है।

10. प्रोपेफसरों के अखिल अमरीकी संगठन ;एएयूजीद्ध के अनुसार आध्े से अध्कि नियुक्तियाँ अस्थायी होती है और 38 प्रतिशत शिक्षक पार्ट-टाइम और होते हैं। यह प्रतिशत सरकारी विद्यालयों में 52 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। ये संस्थाएं कम तनख्वाह वाले अस्थायी और पार्ट टाइम शिक्षकों के बल पर घिसट रही है। इनमें बस थोड़े से स्थायी शिक्षक होते हैं जो सारी व्यवस्थाए को सुपरवाइज करते हैं।

भाइयों और बहनों, बेहतर होगा कि जाग जायें

कम्युनिस्ट मैनिपेफस्टो के आखिरी पृष्ठ मार्क्स-एंगेल्स ने कहा है: ‘दुनियाभर के मेहनतकशों, संगठित हो जाओ।’ आज अगर कालेज शिक्षकों से पूछा जाय, जोर दिया जाय, तो वे यही कहेंगे कि उन्होंने इसमें शिखकों को नहीं शामिल किया था। वह यह शायद मान लें कि उनके बोर्ड आपफ ट्रस्टीज में व्यवसायियों का जोर है। वे यह भी मान जाएंगे कि उनके तथा कालेज प्रशासकों के वेतन और शक्ति में भारी अंतर है। पिफर भी वे अपने को मेहनकश जैसा सामान्य मानने से इन्कार करेंगे। उनमें से कुछ तो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि वे बोर्ड के सदस्यों के मूल्यों को ठीक समझते है और विश्वविद्यालयों के प्रभावी संचालन के लिए ऐसा जरूरी समझते हैं। ऐसे में बहुत से स्वयं एक दिन प्रशासक बनने की महत्वकांक्षा पाले रहते हैं। कुछ मानते हैं कि बोर्ड सदस्यों के मूल्य जो भी हो आखिर कॉलेज दूसरे कार्य स्थ्लों से भिन्न तो होते ही हैं। कॉलेज में श्ज्ञिक्षक और प्रशासक सहकर्मी होते हैं और अपने बीच के विवाद शांतिपूर्वक बिना रागद्वेष के हल कर लेते हैं। बहुत से प्रोपफेसर अपने को बाहरी दुनिया के हुल्लड़ और बाजार की स्थूलता से सुरक्षित ‘प्रोपफेशनल’ समझते हैं। वे अर्थशास्त्राी, रसायनशास्त्राी या गणितज्ञ है कर्मचारी नहीं मजदूर तो एकदम नहीं। प्रशासकों का काम है उनकी सत्य की खोज में आसानिया पैदा करना। वे ‘बॉस’ नहीं होते। इस्पात कारखाने या कोयले खदानों में यूनियन बनाना ठीक हो सकता है पर प्रोपफेशनल लोगों के बीच नहीं। ऐसा एक विश्वविद्यालय के चांसलर ने शिक्षकों के एक कैम्पेन के दौरान उन्हें लिखा था।

मानना ही पड़ेगा कि कुछ ही कॉलेज और विश्वविद्यालय होंगे जहाँ उपयुक्त अकादमिक पफंतासी अंशतः भी सच होगी। हां, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रा विभाग के प्रोपफेसरों को वर्कर नहीं कहा जा सकता। वे निश्चित ही ‘प्रोपफेशनल’ है-समाज के ‘मूवर्स ऐंड शेकर्स’ से सम्ब(। इसी श्रेणी में हार्वर्ड के गव²नग के सदस्य और सीनियर प्रशासक भी शामिल है। लेकिन विश्वविद्यालय के निचले पायदानों पर कार्यरत हम में से अध्किांश के लिए यह पफंतासी एक विभ्रम मात्रा है जिससे चिपके रह कर हम अपने लिए खतरा ही मोल लेंगे। मेरे ख्याल से शिक्षकों के शासकों का वर्कर न होने में कभी भी कोई सच्चाई नहीं थी पर आज तो इसमें तनिक भी वास्तविकता नहीं है। एक चीज स्पष्ट हो गई है, हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय अध्किाध्कि शैक्षिक कारखानों की तरह होते जा रहे हैं ऐसे कार्य-स्थल जो अपने कार्य विधन में उस ग्लास पफैक्टरी से अध्कि भिन्न नहीं रहे जिसमें मेरे पिता काम करते थे या उस ‘डे लेबर सेन्टर’ से भिन्न जिसमें मेरी पत्नी और बेटी काम करती थी।

हमारी आर्थिक व्यवस्था पूंजी संरचना से संचालित है अर्थात् उस अत्यंत अल्पमत द्वारा संचालित है जिनके पास समाज की उत्पादक संपदा है और जो अपना मुनापफा और अपने उपक्रमों को बढ़ाते जाने में लगा हुआ है। यदि गति निर्बाध् रूप से चल रही है और न केवल सारी ध्रती को बल्कि हर देश में जीवन के हर क्षेत्रा को ग्रसती जा रही है। द्वितीय विश्वयु( के पहले हमारे विद्यालय और विश्वविद्यालय मुख्यतः आर्थिक अभिजन के प्रशिक्षण स्थल थे जहाँ उन्हें अपने कार्पोरेशन और पूंजी संग्रह को बढ़ावा देने वाले राज्य को संचालित करने के लिए तैयार किया जाता था। यु( के बाद जब औद्योगिक मेहनतकश देख्श के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्यनभारी परिवर्तन के लिए तत्पर था, उच्च शिक्षा को पहली बार गैर अभिजन सामान्य जन के लिए खोल दिया गया। यु(ोत्तर काल में अमरीकी अर्थव्यवस्था में आए उभार के दौरान पैदा हुए तकनीकी और व्यवस्थापकीय नौकरियों को इन नए स्नातकों ने भरा। पर ज्यों ज्यों व्यवस्थापकीय नियंत्राण की नयी नयी तकनीकों का प्रयोग बढ़ता गया। जैसे श्रम और यांत्रिकी करण के बीच व्यापक विभाजन, इन मैनेजरों के लिए ‘स्किल्ड काम’ करना कम जरूरी होता गया। इस दौरान मजदूर वर्ग के लोगों में, जैसे एथनिक अल्पमत के लोगों और स्त्रिायों दोनों को 1960 के दशक में नागरिक अध्किार के आंदोलनों से ऊर्जा मिली थी, उच्च शिक्षा की मांग बढ़ती गयी। इस दशक की सांस्कृतिक क्रांति ने इस अन्तर्विरोध् को उभार दिया। इसी क्रम में शिक्षा प्रशासकों ने अपने व्यवसायिक उग्रता की ओर उन्मुख करने की निहित संभावनाओं के कारण पाठ्यक्रमों से उन्हें दूर करते हुए आजीविकोन्मुख संकीर्ण तकनीकी पाठ्यक्रमों की ओर झुकाव बढ़ाना शुरू कर दिया।

ये परिवर्तन शुरू ही हुए थे कि बढ़ती विश्वव्यापी प्रतियोगिता और तज्जनित अति उत्पादन के कारण यु(ोत्तर काल में आया उछाल समाप्त हो गया। मुनापफा कम होने लगा और कम्पनियों के बीच उसे बढ़ाए रखने के लिए उठापटक शुरू हो गई। इसके लिए उनकी रणनीति में पहला ही कदम था मजदूरों और उनकी यूनियनों पर प्रहार और कार्य संगठन को पुर्नगठित करना जिसे ‘कम उत्पादन’ कहा जाने लगा है। इस व्यवस्थापकीय प्रणाली का मतलब है काम में तेजी, पूर्णकालिक नौकरियों में कमी और तरह तरह के अस्थायी कर्मचारियों की भर्ती, यथासंभव परोक्ष श्रम का इस्तेमाल, ऐसे कर्मचारियों का इस्तेमाल जिन्हें निर्णय लेने में स्सिेदारी का भ्रम हो, जनता द्वारा दिए करों की बदौलत विकसित इलेक्ट्रॉनिक प्रविध् िका इस्तेमाल जिनके कारण कुशल कर्मचारियों की जरूरत कम होती गई और मैनेजमेंट की श्रम प्रक्रिया के हर पहलू पर नजर और नियंत्राण रखने की क्षमता बढ़ती गई।

दूसरे, कम्पनियों ने पूंजी संचालन के अन्य तरीकों की तलाश आक्रमक ढंग से शुरू कर दी। उदाहरण के लिए ज्ञान आधरित उद्योग, जैसे दूर संचार, कम्प्यूटर, बायोटेक्नालॉजी, तथा इलेक्ट्रॉनिक्स, ने विचारों को माल बनाना शुरू कर दिया और वह बौ(िक सम्पदा में रूपान्तरिक होते गए ओर उन्हें कानून तथा समझौता द्वारा सुरक्षित किया जाने लगा। तीसरे, व्यवसाय ने सरकार पर हर स्तर पर भारी जोर डालना शुरू किया कि सीध्े पूंजी संचय से न जुडे हुए कामों जिसमें रक्षा और पुलिस संबंध्ी खर्चे शामिल थे, में सरकारी ध्न के खर्चे में कमी की जाय।

इस काल के आर्थिक संकट ने अन्य सामान्य उत्पादनों, जैसे कारों और हवाई यात्रों के उत्पादन, की तरह विद्यालयों और विश्वविद्यालयों पर भारी प्रभाव डाला। बजट के संकट के कारण प्रशासक लोग अध्किाध्कि खर्चे के बारे में चौकन्ने होते गए और खर्चों में वाकई कमी की जाने लगी, पार्ट-टाइम और अस्थायी नियुक्तियों के द्वारा शिक्षण संस्थाओं में व्यवसायिक मनोवृत्ति पफैलने लगी। इसका एक परिणाम यह निकला कि उसके प्रशासन के लिए गैर शैक्षणिक लोग रखे जाने लगे। इस व्यावसायिक मानसिकता की विजय शिक्षा प्रशासकों के पदनामों में देखी जा सकती है। ज्यों ज्यों सरकारी पफंडिंग घटती गई संस्थाओं ने व्यवसाय द्वारा पफंडिंग की मांग बढ़ा दी।

व्यवसाय और शिक्षा के बीच इस निकट सम्पर्क ने व्यवसायियों के सामने मुनापफे का नया क्षेत्रा खोल दिया। अगर विश्वविद्यालयों में शोध् और विकास व्यवसाय को हस्तान्तरित किया जा सके तो खर्चे बाहर से जुटाए जा सकते थे। इससे मूलभूत वैज्ञानिक शोध् पर जोर कम होता गया और तत्काल पफलदायी शोध् पर बढ़ता गया। किसी कम्पनी के लिए किए जा रहे शोध् पर सामान्य शोध् का पर्दा डालने के लिए कभी कभी बेहद सर्जनात्मक तरीके ढूंढ लिए जाते। विश्वविद्यालयों को अपने शोधें को अपने शोधें पर पेटेन्ट का अध्किार मिलना इस दिशा में एक बड़ा उत्प्रेरण सि( हुआ। इसे संस्थाओं ने ध्न कमाने का भारी जरिया समझा और कम्पनियों ने स्सते में मिली पूंजी। तरह तरह के समझौते किए गए, परोक्ष व्यवसाय के तरीके ढूंढे गए और कुछ शिक्षक तथा प्रशासक ध्नी होने लगे। चूंकि संस्थाएं स्थायी पूंजी ;प्रयोगशाला, उपकरण आदिद्ध पर भारी रकम खर्च करतीं ताकि पेटेन्ट लायक शोध् हो सके, कक्षा का आकार बढ़ता गया, शिक्षकों की तनख्वाह वास्तव में घटती गई और अस्थायी शिक्षकों की जरूरत बढ़ती गई। इसमें से अध्किांश के लिए यह सब शिक्षक में बढ़ती कमी जैसा था।

एक बार यदि उत्पादन क्षेत्रा पूंजी संचालन के उपयुक्त बन जाय तो यह प्रक्रिया अपरिवर्तनीय हो जाती है। जैसा कि इतिहासकार नोबुल का कहना है शोध् के माल बनने के बाद श्क्षिा भी माल बन गई। हकीकत तो है कि इसे शिक्षा के संकट का समाधन सि( किया जा रहा है। कम्पनियां और उनके शैक्षिक श्रमिक इस क्षेत्रा में साफ्रट और हार्डवेयर के उत्पादन और विक्रय में तेजी से जुट गए हैं। मैंने दूसरे सन्दर्भ में कहा हैः ‘इलेक्ट्रॉनिक क्रांति ने हमारे पारम्परिक कार्यस्वरूप पर जोरदार हमला बोल दिया है। चेतावनी स्पष्ट है। भविष्य में दूर से दी जाने वाली शिक्षा, शिक्षण की वीडियो क्लोनिंग, शिक्षकों पर कम्प्यूटरों में अपने पाठ्यक्रम बंद करने के दबाव, शिक्षकों की इलेक्ट्रॉनिक निगरानी जैसे श्रम की जगह पंूजी को सीमित करने के प्रयास बढेंगे।’

कोई भी गंभीर व्यक्ति इसे समझ सकता है कि उच्च शिक्षा की ये प्रवृत्तियां पारम्परिक प(तियों के साथ एकदम नहीं चल सकती। जब तक अवधरणा और उसके क्रियान्वयन पर हमारा नियंत्राण है व्यवसाय और प्रशासन का गठजोड़ मनमाना नहीं कर सकता। हम अपने शिक्षण संस्थाओं में भी कम उत्पादन वाली परिघटना का कार्यान्वयन देख रहे है शिक्षकों को आलसी, विशेषाध्किार सम्पन्न और कमजोर सि( करने वाले प्रचार से उनके पेशेश् में अस्थायित्व बढ़ता जा रहा है। हहमारे अध्किारों, जैसे शैक्षिक अवकाश, यात्रा भत्ता, प्रशासकीय निर्णयों से पहले हमसे सलाह-मशविरा आदि में कटौती हो रही है।

इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हमारे श्रम के अवमूल्यन के साथ शिक्षा का ही अवमूल्यन हो रहा है। मैनेजमेंट हमसे कहता है कि विद्यार्थी वैसे ही हमारे उपभोक्ता है जैसे सी.डी. प्लेयर या किसी भी चीज के। हमें बस अपने उत्पाद की गुणवत्ता से मतलब रखना चाहिए और गुणवत्ता जैसे ही नापी जाएगी जैसे सी.डी प्लेयर की। समग्र शिक्षा जिसकी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि उसे न तो नापा जा सकता है न गुणवत्ता नियंत्राण की कोई प(ति विकसित की जा सकती है। गुणवत्ता की जगह परिमाणेय क्षमता ले रही है। विद्यार्थी जब अपने को एक मापये उत्पाद उपभोक्ता मान बैठते हैं, तो जाहिर है शिक्षा की क्रीत सामग्री मानने लगते हैं। सी.डी. प्लेयर का खरीदार खरीदने के लिए जिना प्रयास करता है उतना ही विद्यार्थी शिक्षा के लिए इससे ज्यादा की अपेक्षा अनुचित होगी। दरअसल बाजार संचालित विद्यालयों में शिक्षक विद्यार्थी-उपभोक्ता द्वारा खरीदी गई शिक्षा का एक अंश बन जाता है और कमोबेश अपना वजूद खो बैठता है।

श्रमिकों के किसी समुदाय का उनके काम पर वास्तविक नियंत्राण नहीं होना चाहिए। यह मैनेजमेंट का क्षेत्रा है। शिक्षकों के श्रम का जिस तरह रोज-ब-रोज अवमूल्यन हो रहा है वे किसी तरह श्रमिकों से बेहतर स्थिति में नहीं है। हममें और किसी भी तरह के श्रमिक के बीच जितना साम्य है उतना हममे अपने हमारे नौकरीदाताओं के बीच नहीं। यही आशा दिखती है। शिखा का व्यवसायीकरण रोका जा सकता है। हममे से कुछ ने यूनियने बना ली है और पलट कर लड़ सकते हैं। इसे देश के दूसरे लाखों शिक्षकों को अपनाना चाहिए। सबसे अध्कि शोषित पार्ट टाइम्स, अस्थायी ठेके वाले शिखक आदि संगठित हो रहे है। हमें ऐसे प्रयत्नों को सहायता और प्रोत्साहन देना चाहिए।

हमें सहायक चाहिए और इसका सबसे बड़ा स्रोत श्रमिक वर्ग ही है। हमें दूसरे श्रमिकों और छात्रों की सहायता लेनी चाहिए। हमें कैम्पस के दूसरे कर्मचारियों के संघर्षों में एकजुटता दिखानी चाहिए। हमें अपने नगर के दूसरे यूनियनों के कामों में भागीदारी करनी चाहिए। हमें दूसरे श्रमिकों को शिक्षित करने में हिस्सेदारी करनी चाहिए। हमें क्लास में भी श्रमिकों परिप्रेक्ष्य और संस्कृति लाना चाहिए, जब भी जितना भी संभव हो। छात्रों को भी पता होना चाहिए कि कैस भविष्य उनका इन्तजार कर रहा है।

इनका बहुत महत्व है। अपने बीच पुल बनाने, आंदोलन खड़े करने से आवाज में दम पैदा होना। अभी जो सपना है वह मजबूत श्रमिक वर्ग अंजाम दे सकता है। जो हमारे बीच हो रहा है उसे पलटना है तो एक समतामूलक जनवादी समाज के लिए संघर्ष से जुड़ना होगा। ऐसा आंदोलन शिक्षा को सामाजिक भलाई के लिए जरूरी समझेगा और आर्थिक परिवर्तन के अनुकूल विद्यार्थी गढ़ने को सामाजिक पागलपन समझेगा।

मैं मार्क्स और एंगेल्स के आह्नान को थोड़ा परिवर्तन करके अंत करूंगा: ‘दुनिया के शिक्षकों’ तुम श्रमिक भी हो, संगठित हो।’

मंथली रिव्यू जनवरी 2000 से साभार ;अनु. लाबवद्ध

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