Wednesday, January 4, 2012

खटखट

[This poem was published in CRITIQUE, Vol-1, Issue-3. Critique is a Quarterly brought out by the Delhi University Chapter of New Socialist Initiative (NSI)]

- नरेश कुमार

खटखट

सर्र-सर्र, पों पों पों, ढम-ढम;

सब नज़र आते हैं, सुनाई देते हैं सड़क पर;

लेकिन इन सब के साथ-साथ अक्सर होती है सड़क पर 

खटखट, खटखट, खटखट।


खटखट, अक्सर सुनाई नहीं देती 

और न ही इसे सुनने की ज़रूरत समझी गई है अभी तक।

खटखट, टोह सिर्फ़ रास्ते की नहीं लेती,

चो़ट महज़ सड़क या फुटपाथ पर नहीं पड़ती;

यह खटखट कोशिश है उन दरवाजों को खटखटाने की

जो अब तक खोले नहीं गये।

और इस कोशिश की गवाही इतिहास या समाजशास्त्र की किताबें नहीं बल्कि

खरोंचे लगी टाँगें या फूटा हुआ माथा दिया करते हैं।

ये निशान महज़ निशान नहीं है।

बल्कि सबूत हैं उन कोशिशों के

जो दरवाजों को बन्द रखने के लिए लगातार की जा रही है।

और बयान इस बात का कि खटखट हो रही है।

और ज़्यादा और तेज़।
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नरेश कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरु कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक हैं

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