Monday, March 11, 2013

[Founding Conference] NSI के स्थापना सम्मेलन के उदघाटन सत्र में - सुभाष गाताडे

कामरेडस्,

प्रख्यात मार्क्सवादी विचारक जायरस बानाजी, गुजरात की मशहूर कवयत्री एवं सांस्कृतिक कर्मी और लम्बे समय से संघर्षों की साथी सरूप बेन, मेरे बेहद अज़ीज दोस्त एवं साथी रवि और मित्रों, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव के इस स्थापना सम्मेलन के उदघाटन सत्र में आप सभी का तहेदिल से स्वागत है। आज के इस खुले सत्र के बाद आने वाले दो दिन प्रतिनिधि सत्र में एनएसआई की इस प्रक्रिया से जुड़े, उससे नजदीकी रखनेवाले लोग मसविदा दस्तावेजों पर गौर करेंगे, उसमें अपने संशोधनों को पेश करेंगे और अन्त में उस पर अपनी मुहर लगाएंगे।
                                                     संयोजक का वक्तव्य

यूं तो हर दिन की अपनी अहमियत होती है, लेकिन क्या इत्तेफाक है कि यह सम्मेलन कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र - जो ऐतिहासिक दस्तावेज मार्क्स-एंगेल्स ने तैयार किया था, जिसमें यह ऐलान किया गया था कि सर्वहारा के पास ... उसकी 165 सालगिरह के अवसर पर हो रहा है। कल ही दुनिया भर में मार्क्स के विद्यार्थियों ने इस दिन को याद किया।

आप में से कई लोग जानते होंगे कि ‘कामगारों के लिए दुनिया, दुनिया के लिए भविष्य’ शीर्षक से जारी हुए एनएसआई के इस मसविदा घोषणापत्रा को जारी हुए भी दो साल का समय बीत चुका है। तमाम लोगों ने इसके बारे में अपनी प्रतिक्रिया भी हमें दी है, इसके बावजूद यह कहना पड़ेगा कि प्रस्तुत विचारधारात्मक-राजनीतिक प्लेटफॉर्म/मंच के गठन की प्रक्रिया से कई लोग हाल ही में वाकीफ हुए हैं। और हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि छोटे छोटे वाम संगठनों की बढ़ती सी जा रही कतार में एक और मंच के आगमन को देख कर आप में से कइयों के मन में कई किस्म की प्रतिक्रियाएं हो रही होंगी।

तय बात है कि चन्द मिनटों के इस विषयप्रवर्तन में उन तमाम प्रतिक्रियाओं से रूबरू होना मुमकिन नहीं है। मैं बस हमारी अपनी इस विचारयात्रा का निचोड़ पेश करने की कोशिश करूंगा ताकि आप जान सकें कि क्रान्तिकारी वामपंथ से अभिन्न रूप से जुड़े और उसकी विरासत को अपनी थाती, अपनी धरोहर माननेवाले हम लोगों ने इस किस्म के एक मंच के निर्माण के बारे में क्यों तय किया और कैसे तय किया ? आखिर इसके जरिए हम क्या करना चाहते हैं ? क्रान्तिकारी समाजवादी राजनीति को नवजीवन देने की जरूरत के हमारे दावे के आखिर क्या मायने हैं ? 
यह प्रश्न, यह मसला तमाम लोगों, संगठनों, पार्टियों की तरह हमारी भी चिन्ता के केन्द्र में रहा है कि आखिर इतनी विशाल तादाद के बावजूद - जो विभिन्न संगठनों, तंजीमों में सक्रिय है, आज भी मार्क्सवाद पर यकीन करती है, उसके लिए असीम कुर्बानियां दे रही हैं - दक्षिण एशिया के इस हिस्से में वामपंथ आज भी लगभग हाशिये पर क्यों है ? 

लम्बी सी बात को मुख्त़सर में कहें तो अपने अनुभव में हम लोगों ने महसूस किया है कि एक किस्म की वैचारिक जड़ता आन्दोलन के अच्छे खासे हिस्से में व्याप्त है, जिसमें बदले हुए हालात को समझने के लिए कठिन बौद्धिक वैचारिक उद्यम में जुटने के बजाय पुराने सूत्रीकरणों से ही चिपके रहने पर जोर है, ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करने की बात अवश्य की जाती रहती है, तथ्यों से सत्य की तरफ जाने की बात अवश्य की जाती है, मगर ‘स्थापित सत्य’ के अनुकूल तथ्य फिट करने पर अत्यधिक जोर दिखता है। गौरतलब है कि ये तमाम ऐसे सूत्रीकरण हैं जिनका हमारे शिक्षकों ने अपने समय की परिस्थिति को समझने के लिए उपयोग किया था, और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर वे आज हमारे बीच होते तो नयी स्थितियों के हिसाब से नयी समझदारी पेश करते। 

नयी उभरती परिस्थितियों को समझने के बजाय उन्हें पुराने सूत्रीकरणों में ही फिट करने की कोशिशें किस तरह परवान चढ़ती हैं, इसे हम नेपाल के उदाहरण से समझ सकते हैं। 

मुझे याद है कि एक सभा में कामरेड प्रचण्ड नेपाली क्रान्ति की मुश्किलों को बयान कर रहे थे, उन्हें राजशाही के साथ समझौते में क्यों उतरना पड़ा, इसकी चर्चा कर रहे थे। उनका कहना था कि हम लोगों ने यही पाया कि छोटी छोटी लड़ाइयां हम जीत पा रहे हैं पर नेपाली सेना के साथ प्रत्यक्ष टकराव में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बातचीत में शामिल भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के एक अग्रणी ने मासूमियत भरा प्रश्न पूछा कि आखिर आप की लाल सेना क्यों नहीं काठमांडू पर मार्च करने के लिए निकलती ?

दूसरी तरफ, कामरेड प्रचण्ड को भी बदली परिस्थितियों का एहसास था, मगर बात पुरानी करनी पड़ रही थी कि लोकयुद्ध का विकल्प हम लोगों ने छोड़ा नहीं है। आज हम पा रहे हैं कि इसी मसले पर वहां के क्रान्तिकारी दो समूहों में बंट गए हैं और अपने आप को अधिक क्रान्तिकारी कहलानेवाले समूह के लोग भी जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री का पद सम्भालने के लिए तैयार है।

मैं नेपाल के कामरेडों की कुर्बानियों, त्याग को कम करके नहीं आंकना चाहता, हम सभी को उनसे सीखना चाहिए, मगर ऐसा क्या जादू हुआ कि एक वक्त राजा की बेदखली के जिम्मेदार शक्तियां, जिन्होंने नेपाल में नयी सम्भावनाओं के युग का सूत्रापात किया, ऐसे अप्रिय विवादों में इतनी जल्दी फंस गए।

अगर हम भारत के अनुभव की ओर लौटें तो यह दिखता है कि चाहे बीसवीं सदी के समाजवाद के अनुभव का सारसंकलन करना हो, आज के दौर में पूंजीवाद के नए कार्यविधान की रूपरेखा पेश करनी हो, सामाजिक पहचानों के नए से लगनेवाले मसलों में हस्तक्षेप के लिए नए कदम उठाने हों या और भी कोई मसला हो, हम अक्सर पुरानी लीक पर चलते दिखते हैं। 

इसमें कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि 20 वीं सदी में समाजवाद की युगान्तकारी परियोजना को मिली शिकस्त को लेकर हमारी कोई मुकम्मल राय नहीं बन पायी है, उसके बारे में हमारे तमाम विश्लेषण स्तालिन बनाम ट्राटस्की, क्रुश्चेव बनाम माओ, माओ बनाम डेंग सियाओ पिंग जैसे विश्लेषणों तक सीमित रह गए हैं, एक तरह से मनोगतवादी विश्लेषण तक सीमित होकर रह गए हैं। चाहे सोविएत संघ का विघटन हो, या पूर्व सोविएत गणराज्यों में विभिन्न किस्म के तानाशाहों का आगमन हो - जिनमें से कई विघटन के पहले तक वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों के लीडर रह चुके है, क्या यह अनुभव समाजवाद के प्रयोगों में चली आ रही खामियों की तरफ इशारा नहीं करते ? क्या महज क्रुश्चेव के गले में गलतियों का जखीरा डाल कर हमे इस विश्लेषण से बचा सकते हैं। 

जहां पार्टी निर्माण की लेनिन की हिरावल दस्ते/वैनगार्ड की धारणा अक्षुण्ण बनी रहनी चाहिए, मगर क्या बीसवीं सदी के समाजवाद के प्रयोगों में पार्टी और सरकार का जो आपसी रिश्ता था, उसी किस्म का रिश्ता 21 वीं सदी के भावी समाजवादी इन्कलाबों में हम देख पा रहे हैं या उन पर पुनर्विचार की जरूरत है? 

पहले के इन्कलाबों एवं आज के इन्कलाबों में फर्क करने की भी आवश्यकता है। पहली बार एक ऐसे पूंजीवाद के खिलाफ इन्कलाब की चुनौती हमारे सामने आयी है, जब बुर्जुआ जनतंत्र एक अधिक स्वीकार्य प्रणाली के रूप में मौजूद है। मेहनतकश जनता के एक हिस्से में भी पूंजी के तर्क की वैधता कायम है। ऐसी हुकूमतों के खिलाफ क्या महज हथियार उठा कर लड़ा जा सकता है या पूंजी के वर्चस्व को तोड़ने के लम्बे संघर्ष को चलाने के बारे में हमें सोचना होगा।

भूमण्डलीकरण को ही देखें, क्या इसे राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ा जा सकता है ? 

हम पाते हैं कि भूमण्डलीकरण के बाद उदघाटित होती नयी नीतियों का विरोध करने के दौरान कई बार अतिदक्षिणपंथ एवं वामपंथ के नारे के बीच फ़र्क करना मुश्किल हो जाता है। दोनों ताकतें राष्ट्रवाद की बात करने लगती हैं। और दक्षिणपंथ द्वारा राष्ट्रवाद के नारे के बरअक्स हम प्रगतिशील राष्ट्रवाद की बात करने लगते हैं। कहीं इस पर सोचने की आवश्यकता नही है।

सामाजिक पहचानों का सवाल भी आने वाले समयों में अहम मुद्दा बना रहेगा।

मुझे याद है कि बीसवी सदी की आखरी दहाई में जब जाति के प्रश्न पर वाम की प्रचलित समझदारी को प्रश्नांकित करते हुए बातें रखना हम लोगों ने शुरू किया तो किस तरह विपथगमन के, मार्क्सवाद से भटकाव के आरोप हम पर लगे थे। दलित मुक्ति के प्रश्न को समझने में वाम की विफलता, कई नाजुक वक्तों पर वर्गीय एकता के नाम पर हमारे अग्रणियों द्वारा जाति के प्रश्न को उठाने से किया गया इन्कार - जैसी स्थूल गलतियों को स्वीकारना भी उनके लिए कुफ्र जान पड़ रहा था।

सवालों की फेहरिस्त लम्बी हो सकती है।

कहीं न कहीं गहराई में जाकर विश्लेषण करने की जरूरत है। यह कहने की जरूरत है कि नारेबाजी विश्लेषण का स्थानापन्न नहीं हो सकती। निश्चित ही यह हमारे अपने अकेले बस का काम नहीं है। समूचे वाम को इसमें जुटना पड़ेगा। हम उम्मीद करते हैं कि एनएसआई जैसी तमाम प्रक्रियाएं इस विराट मुल्क में चलेंगीं। 

इस विचारधारात्मक-राजनीतिक मंच का निर्माण इसीलिए किया गया है ताकि ऐसे तमाम सवालों पर बात हो सके। यह स्पष्ट कर दें कि यह प्लेटफार्म पार्टी का कोई स्थानापन्न नहीं है। ऐसी पार्टी बनाने का काम आज भी एजेण्डा पर है। पूंजी के शासन के खिलाफ राजनीतिक इन्कलाब की परिस्थितियों को तैयार करना, समाजवादी समाज के निर्माण को सुगम बनाने के लिए स्थितियों को तैयार करना एवं ताकतों को मजबूत बनाना जैसे काम आज भी एजेण्डा पर हैं।

स्थापना सम्मेलन के अवसर पर मैं आप सभी को आवाहन करता हूं कि आप भी इस प्रक्रिया से जुड़ें। अगर आप को घोषणापत्रा में कही जा रही बातें ठीक लगती हैं तो सम्वाद का सिलसिला आगे बढ़ाएं।

22 फरवरी 2013
उदघाटन सत्र में दिया गया वक्तव्य


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