Tuesday, July 2, 2013

एकान्तिक मीनार में बन्दः जेस्टोर अकादमिक अनुसन्धान को क्यों कैद करता है

- लॉरा मैककेना

आज सुबह मैंने आनलाईन डाटाबेस जेस्टोर में ऑटिज़म पर अनुसन्धान लेखों को पढ़ने की कोशिश की। मेरा एक बच्चा है जिसके ऑटिज़म के शिकार होने की आशंका है तथा मैं इस विषय पर नवीनतम अनुसन्धान से अवगत होने की कोशिश में रहती हूं।ऑटिज़म शब्द वाले पहले दो सौ लेखों में से मैं एक भी लेख नहीं पढ़ पायी, क्योंकि युनिवर्सिटियों के पहचान पत्र वालों को ही अकादमिक पत्रिकाओं के लेखों के पढ़ने की सुविधा है। उनके अलावा हर एक को, चाहे वे पत्रकार हों, स्वतन्त्र विद्वान हों या उत्सुक व्यक्ति, पढ़ने के लिये मोटा शुल्क देना पड़ता है।

मुझे बाद में एक लेख मिला जो 38 डॉलर में उपलब्द्ध था। मुझे यह नहीं पता कि 12 पेज के एक लेख का दाम 38 डॉलर क्यों है। मुझको लेख पर सरसरी नजर डालने में 8 मिनट लगते हैं। अनुसन्धानकर्ता को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती है। तब एक लेख पढ़ने की इतनी कीमत क्यों? उत्तर अकादमिक प्रकाशन की पुरानी चली आ रही रीत में है। 

एकान्तिक मीनार से किवाड़ोंबद्ध डाटाबेसों तक

एक अकादमिक अनुसन्धानकर्ता को किसी विषय पर अनुसन्धान करने में वषों का समय लगता है। यह अनुसन्धान सरकारी अनुदानों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा दी गयी रियायतों पर संभव होता है। प्रोफेसर को अनुसन्धान के लिये समय, स्थान व कार्यालय की सहुलियत दी जाती है। तब वह अनुसन्धान पर लेख अकादमिक जर्नल को भेजता या भेजती है।

अकादमिक पत्रिकायें विश्वविद्यालयों में से निकलती हैं क्योंकि इनसे विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा मिलती है। ये प्र्राध्यापकों द्वारा सम्पादित होती हैं। प्रोफेसरों को पढ़ाने के काम से छूट तथा कुछ आर्थिक मदद दी जाती है। विश्वविद्यालय ही कार्यालय व सेक्रेटेरियल काम करने वाले विद्यार्थी प्रदान करवाते हैं। 

संपादक छपने के लिये भेजे गये लेखों की समीक्षा करती्/करता है। अगर लेख बिल्कुल बेकार नहीं है तो उसे कुछ अन्य प्रोफेसरों को भेजा जाता है. जो उसके विषय पर पारंगत होते हैं। समीक्षक लेख पर टिप्पणियां भेजते हैं, उनके इस काम का आधार भी विशविद्यालय ही होते हैं क्योंकि इससे भी उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। 

समीक्षकों की टिप्पणियों को संपादक लेखक को भेजता्/भेजती है, जो टिप्पण्णियों के आधार पर लेख में आवश्यक फेर बदल करता्/करती है। संशोधित लेख संपदाक को भेजा जाता है, जो लेखों को विषय अनुसार संग्रहीत करके प्रस्तावना सहित मुनाफा कमाने वाले प्रकाशक को भेजता्/भेजती है। 

प्रकाशक इस क्रम की महत्वपूर्ण कड़ी है क्योंकि उसे जर्नल की छपायी व पाठकों की छोटे से समुदाय में वितरण के लिये धन की आवश्यकता होती है। पैसा कमाने के लिये प्रकाशक जेस्टोर जैसे अकादमिक सर्च इन्जन को प्रयोग के अधिकार बेचते हैं। प्रकाशकों के लिये बेहद मुनाफे का सौदा है, क्योंकि पारम्परिक प्रकाशन से भिन्न प्रकाशक को लेखक व सम्पादक को कुछ देना नहीं पड़ता। उसे सिर्फ टाईपसेटिंग, छपायी व वितरण का खर्च उठाना पड़ता है। 

अकादमिक अनुसन्धान के इलैक्ट्रानिक वितरण के अधिकार खरीदने के बाद जेस्टोर प्रत्रिकाओं का डिजिटीकरण करता है तथा उन्हें वापिस विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को बेचता है। प्रकाशकों से सूचना लीज पर लेने के खर्चे को पूरा करने के लिये जेस्टोर जैसे सर्च इन्जन चन्दे पर आधारित सदस्यता के माडल का अनुसरण करता है जिसके अन्र्तगत सूचना उन्हीं तक सीमित रहती है जो मोटी फीस दे सकते हैं। विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों के बजट का बड़ा हिस्सा आजकल डाटाबेसों की सदस्यता शुल्क में जाता है। सैन डियेगों के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय का 65 प्रतिशत बजट जेस्टोर व अन्य डाटाबेसों की सदस्यता में जाता है। जेस्टोर के कला व विज्ञान संग्रह प्राप्त करने के लिये – जो एसे कई संग्रहों में से एक है – 45,000 डॉलर का शुरूआती शुल्क तथा 8,500 डॉलर प्रतिवर्ष तत्पस्च्यात देना पड़ता है। 

इस परिदृश्य से एक कदम पीछे हटकर सोचिये। जिन विश्वविद्यालयों ने सारा अकादमिक ज्ञान बिना पैसा लिये पैदा किया, उन्हें ही इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये फीस देनी पड़ती है। एक कदम और पीछे हटिये। आम जनता – जिसके टैक्स से सरकारें उच्च शिक्षा को आर्थिक आधार प्रदान करती हैं – का इस ज्ञान सम्पदा तक कोई पहुंच नहीं है, क्योंकि पब्लिक पुस्तकालय सदस्यता शुल्क नहीं दे पाते। समाचार पत्र व सार्वजनिक विमर्श की अन्य संस्थायें, जो अकादमिक अनुसन्धान के ज्ञान को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रसारित कर सकती हैं, उनकी भी इस ज्ञान तक पहुंच नहीं है। विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सही में हताश होते हैं कि उनकी वर्षों की मेहनत का फल गिने चुने लोगों तक ही पहुंचता है, जबकि जेस्टोर प्रतिवर्ष पन्द्रह करोड़ बार अकादमिक लेख पढ़ने के प्रयासों पर को असफल करता है।

मुक्त अनुसन्धान

अकादमिक अनुसन्धान के ज्ञान तक सर्वजन की पहुंच कैसे सुनिश्चित की जा सकती है? चुनौती यह है कि कैसे प्रकाशक जेस्टोर की मिलीभगत से अलग अकादमिक अनुसन्धान के लेखों को कैसे वेब पर लाया जा सके? अगर अकादमिक पत्रिकायें छपायी के अनावश्यक कदम से स्व्यं को अलग रखें तो इस चक्र को तोड़ा जा सकता है। वे सीधे लेखों को वेब पर डाल सकते हैं तथा प्रकाशक को इस प्रक्रिया से बाहर कर सकती हैं। 

गूगल स्कॉलर के दौर में स्वतन्त्र अकादमिक सर्च इन्ज्नों की कोई आवश्यकता नहीं है। अनुसन्धानकर्ताओं को अपने काम के लिये बड़ा पाठक वर्ग मिलेगा। ऑनलाइन परिसर से और अधिक सहयोग व तीव्रतर प्रकाशन होगा। विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को भारी बचत होगी। आटिज्म जैसे विषय पर नवीनतम अनुसन्धान की जानकारी रखने को इच्छुक आम जन इसे आसानी से प्राप्त कर सकेंगे। 

जिद्दी परम्परा लेकिन इस चक्रव्यूह को जारी रखे है।

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Laura Mckenna is formerly an Adjunct Professor in Political Science at Teachers College/Columbia University. She blogs at Apt. 11D. The English version of this article can be read here.

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