Tuesday, December 22, 2015

राजनीति में स्त्री: मिथक और यथार्थ , एक जमीनी पड़ताल


स्वदेश कुमार सिन्हा
  

’’आज का संकट ठीक इस बात में निहित है कि जो पुराना है वह मर रहा है और नया पैदा नही हो सकता हैइस अन्तराल में रूग्ण लक्षणो का जबरदस्त वैविध्य प्रकट होता है।"

(अन्तोनियों  ग्राम्शी, प्रिजन नोट बुक्स )
                           
राज्य विधान सभाओ तथा लोकसभा में स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण का बिल लम्बे समय से विचाराधीन हैइस पर विभिन्न राजनीतिक दलो के दृष्टिकोणो की ढेरो व्याख्या की जा चुकी है और की जाती रहेंगी परन्तु इस सम्बन्ध में भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति पितृ सत्तात्मक वर्चस्व और सामंती अवधारणाओ की जमीनी हकीकत क्या है इसकी पड़ताल की आवश्यकता हैक्योकि संस्कारो में चाहे वामपंथी हो या दक्षिण पंथी ज्यादातर पुरूषो की स्त्रियों के प्रति सोच एक जैसी है मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है। लम्बे  समय से वामंपंथी आन्दोलन से जुड़े रहने के दौरान इस बात का लगातार एहसास होता रहा कि ज्यादातर ’’पार्टी कामरेड’’ अपनी पत्नियों बेटियों तथा बहनो को राजनीति से दूर रखना चाहते थे। उन्हे लगातार यह भय सताता रहता था कि वे स्त्रियों उनसे ज्यादा ’’बौद्धिक न हो जाये’’ अथवा बहनबेटियाँ अंतरजातीय अथवा अंतरधार्मिक विवाह न कर लें । पार्टी फोरमो तथा जनसभाओ में पत्रिकाओ के लेखो में  स्त्री की आजादी और नारी विमर्श की लम्बी -लम्बी बाते करने वाले पाटी्र कामरेडो की असलियत लम्बे समय तक साथ रहने पर ही ज्ञात होती है।

इन संगठनो ने भले ही अलग महिला संगठन बना रखे है समय -समय पर महिलाये धरना प्रदर्शन में जाती भी रहती हैं  परन्तु पूर्णकालिक महिला कार्यकर्ताओ  की जिम्मेदारी भी खाना बनाने ,साफ सफाई से लेकर अनेको तकनीकी कार्य जैसे संगठन के पूुस्तकालय ,पुस्तको की दुकान की देखभाल ,कम्प्यूटर पर कार्य आता ही रहता है।

पूर्वी उ0प्र0 के आजमगढ़ जिले के एक सुदूर  गावं में  कार्य करते हुए एक महिला से मुलाकात हुई करीब 40 वर्ष पूर्व उसके पति उसे तथा उसके दो छोटे बच्चो को छोड़कर कलकत्ता चले गये । बाद में ज्ञात हुआ कि वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये हैं । उस अकेली स्त्री ने बहुत कष्ट सहकर बच्चो का लालन-पालन किया। मुझे बाद में पता लगा कि उक्त पार्टी नेता की भारतीय वामपंथी आन्दोलन को वैचारिक दृष्टि देने में महत्वपूर्ण योगदान है। आज से करीब पांच  वर्ष पूर्व उक्त स्त्री गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने के बाद शहर में पति के पास पहुँच  गयीं तथा उन्ही के पास रहते हुए कुछ दिनो में उसका निधन हो गया। ’’भारतीय हिन्दूू परम्परा’’ में  ’’पति की गोद मे’’ दम तोड़ने वाली स्त्री को ’’महान’’ समझा जाता है। उसकी इस महानता के बारे में उक्त कामरेड पति की क्या राय है यह आज तक मुझे ज्ञात नही हुआ। पार्टी संगठनो में इस तरह के पुरूषो को गौतम बुद्ध अथवा राहुल सांस्कृत्यायन से कम महान नही समझा जाता है। कुछ वर्षो पूर्व नेपाल में माओवादी जनयुद्ध’ के समय नेपाल माओवादी कम्युनिष्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की एक महिला सदस्य पार्वती (छद्म नाम) ने संगठन में महिलाओ के साथ हो रहे भेद-भाव पर कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे बहस के लिए उठाये थे। इसे पढ़कर आप कम्युनिष्ट संगठनो में  महिलाओ की स्थिति के बारे में भली भाति  जान सकते हैं ऐसा नही है कि इन प्रवृत्तियों के अपवाद नही हैं  परन्तु अपवादो से नियम नही बनते हैं । भारतीय लोकतंत्र इस बात पर गर्व कर सकता है कि हमारे यहाँ स्त्रियों को बहुत से विकसित देशो से पहले ही वोट देने का अधिकार मिल गया था। परन्तु भारत की संसदीय राजनीति में’’राबड़ी देवी परिघटना ’’ से यहाँ  पर स्त्रियों  की स्थिति का सहज ही अन्दाजा लगा सकते हैं । राज्य विधान सभाओ तथा संसद में जो स्त्रियाॅ चुनाव लड़कर विजयी हो रही हैं । उनमें से 95 प्रतिशत राजनीतिक परिवारो से ही आती हैं । वास्तव में अधिकांश क्षेत्रीय दल चाहे वह उत्तर भारत में विहार अथवा उ0प्र0 के हो अथवा दक्षिण भारत में सभी परिवारिक संगठनो में बदल गये हैं  इन पार्टियो के नेताओ का सारा परिवार जिसमें स्त्रियां भी शामिल हैं  सांसद और विधायक बन जाती हैं । राष्ट्रीय पार्टियों में भी कमेावेश यही स्थितियाँ  हो रही हैं । स्वतंत्र रूप में राजनीति करने की महत्वकांक्षा पालने वाली स्त्रियों की नियति नैना साहनी ’ अथवा मधुमिता शुक्ला जैसी होती है। जिनकी हत्यायें  उनके पति और प्रेमी ने कर दी। एक को तन्दूर में काट काट कर जला दिया जता है दूसरी की गोली मारकर हत्या कर दी जाती हैं । भारतीय सामाजिक ढांचा  इन प्रवृत्तियों  को सहज ही स्वीकार कर लेता है।

किसी सांसद या विधायक की मृत्यु हो जाने पर उसकी विधवा को चुनाव में खड़ा करने की आम प्रवृत्ति है। जिसमें विचारा धारा अथवा राजनीति का प्रश्न न होकर सहानुभूति का पक्ष प्रबल होता है। अगर कोई पुर्नविवाह कर ले तो शायद ही वह चुनाव जीत सके । ’’सफेद साड़ी में लिपटी आखों  में आंसू  भरे विधवा ही भारतीय समाज की आदर्श है और वोट उसे ही मिलते हैं  ’’ आप सहज कल्पना कर सकते हैं  अगर इन्दिरा गाँधी, सोनिया गाँधी  ,मेनका गाँधी श्री माओ भण्डारनायके (श्री लंका) खालिदा जिया (बंगलादेश) अगर पुर्नविवाह कर लेती तो शायद उस स्थान पर पहुँच  पाती जहाँ पर वे पहुंची  है। यह बात पुरूषो पर लागू नही होती है। पत्नी की मृत्यु की बात छोड़ ही दे ढ़ेरो सांसद ,विधायक ,अथवा राजपालो की एक से ज्यादा पत्नियां  समाज में स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य हैं ।
    
स्त्रियों को भले विधान सभाओ अथवा संसद में आरक्षण न मिला हो परन्तु उ0प्र0 में नगर निगमो तथा ग्राम पंचायतो में महिलाओ को 33 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। अभी हाल में उ0प्र0 में ग्राम पंचायतो के चुनाव सम्पन्न हुए हैं  उसमें करीब 40 प्रतिशत महिलायें  ग्राम पंचायतो में निर्वाचित हुई हैं । प्रिन्ट मीडिया एवं इलेक्ट्रनिक मीडिया इसे महिला  सशक्तिकरण का उदाहरण बता रहे हैं । परन्तु जमीनी हकीकत चकित करने वाली है। उ0प्र0 की राजनीति में एक शब्द प्रधान पति प्रचलित है। वास्तव में यह प्रधान पति ही सब कुछ होता है। ज्यादातर महिलाओ की आरक्षित सीटो पर गावं  का दबंग व्यक्ति अपनी पत्नी ,बहन अथवा मां  को चुनाव में खड़ा कर देता है। उक्त स्त्री की भूमिका केवल नामांकन पत्र भरने तक होती है। पर्चा भरते समय पत्नी के हस्ताक्षर उक्त पुरूष ही करता है। इस पर विपक्षी प्रत्याशी या सरकारी कर्मचारी कोई आपत्ति नही करते हैं क्योकि सारे ही लोग इस खेल में शामिल रहते हैं । चुनाव प्रचार से लेकर पोस्टरो तक पर पति ,पिता अथवा बेटे का नाम अथवा फोटो होती हैं । आज भी ज्यादातर गावं में  यह माना जाता है कि स्त्री का काम बच्चे पैदा करना उनका पालन-पोषण करना तथा घर के काम-काम करना है। राजनीति जेसे गन्दी जगह पर उनका क्या काम। आश्चर्य की बात यह है कि यह प्रधान पति पत्नी के बैठक  खाते पर हस्ताक्षर भी करते हैं । बैंक के कर्मचारी इसे सहज ही मान्यता दे देते हैं । बहुत से अनारक्षित सीटो पर स्त्रियों  के जीत का राज यह है कि बहुत से जेलो में बन्द अथवा फरार अपराधी इन जगहो पर अपने घर की किसी स्त्री को चुनाव में खड़ा कर देते हैं जाति अथवा अन्य समीकरणो से वह चुनाव जीत भी जाती है। जेलो में बंद अथवा फरार बेटा अथवा पति उक्त गावं  का प्रतिनिधित्व करता है। उ0प्र0में बांदा  जैसे अनेक डाकूग्रस्त इलाको में बहुत से डकैतो की मां  अथवा पत्नियाँ  भी इस बार विजयी हुई है। अनेक वामपंथी भी उ0प्र0 में इस खेल में शामिल हैं ।
   
नगर निगमो के चुनाव मे स्त्रियों की सिथति इससे बहुत भिन्न नही है। पिछले वर्ष एक अरक्षित सीट पर एक ऐसी महिला जीती जो गई वर्षो से कोमा में थी। उसके पति ने उसका नामांकन पत्र भरा और चुनाव लड़कर जीत भी गया। बहुत सी पर्दानशीन महिलायें भी नगर निगमो में निर्वाचित हुई जिनका चेहरा किसी ने नही देखा था। इसके कुछ अपवाद भी है । कुछ वर्षो पूर्व ’’पूर्वान्चल ग्रामीण विकास सस्थान नामक स्वयं सेवी संगठन ’’से कुछ महिलायें  स्वतंत्र रूप से ग्राम सभाओ में चुनाव जीती। उनमें से एक सुनीता देवी को ग्रामीण विकास के लिए महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए नोबेल पुरस्कार के लिए नमित भी किया गया था। उन्होने मुझे एक साक्षात्कार में बताया था कि ’’ग्राम प्रधानो की सभाओ में वे  कम ही जा पाती हैं क्योकि वहां पर अधिकांश पुरूष ही होते है तथा महिलाओ के बारे में  अश्लील बातें तथा चुटकुले सुनाये जाते हैं । उनकी बातो से यह तो सिद्ध होता है कि अगर श्रमजीवी वर्ग की महिलाये चुनाव में स्वतंत्र रूप से भाग ले तो वह विजयी हो सकती है। वामपंथी इसकी पहल कर सकते हैं । परन्तु चुनाव के वक्त उनकी भी राजनीति मध्यवर्गीय दायरे में धूमती रहती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण काफी है गोरखपुर शहर में  नगर निगम में मेयर का पद महिलाओ के लिए आरक्षित है पिछले वर्ष मेयर के चुनाव में भाजपा ,कांग्रेस ,सपा तथा सी0पी0आई0 (एम0एल0) की महिला प्रत्याशियों के साथ-साथ एक महिला टैक्सी चालक भी स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रही थी। इस प्रत्याशी ने भाजपा तथा काग्रेंस के प्रत्याशी को जबरदस्त टक्कर दी तथा तीसरे स्थान पर रही। सी0पी0आई0एम0एल की प्रत्याशी अपनी जमानत तक नही बचा पायी। श्रमजीवी वर्गो जिसमें टैक्सी ड्राइवर ,रिक्शा चालक तथा मजदूरो का उसे भरपूर समर्थन मिला। अगर वामपंथी संगठन किसी श्रमजीवी वर्ग की महिला को खड़ा करते तो शायद परिणाम इससे भिन्न होता।

इन सर्वेक्षणो के आधार पर आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुॅचा जा सकता है कि भारतीय समाज भले ही अपनी अंतर्वस्तु में एक पूँजीवादी समाज में बदल गया हो  परन्तु उसकी अधिरचना में  आज भी गहरे स्तर पर सामंती पिछड़ी मानसिकता जड़ जमाये बैठी है । स्त्रियों को केवल आरक्षण दे देने से उनकी समस्याओ का समाधान नही हो सकता यह उन्हे एक कदम जरूर आगे बढ़ायेगा। कड़े कानूनो के बावजूद स्त्रियों के विरूद्ध हर तरह की हिंसा तथा बलात्कार की बढ़ती हुयी घटनाये भी इसी मानसिकता के परिणाम है । राजनीतिक दलो में  कुछ हद तक वामपंथी पार्टीयों  को छोड़़कर सभी दलो में  आज भी स्त्रियों  की स्थिति दोयम दर्जे की है। विधान सभाओ तथा संसद में स्त्रियों  को आरक्षण पुरूषवादी वर्चस्व को चुनौती अवश्य देगा। इसलिए अधिकतर राजनीतिक दल किसी न किसी बहाने इसका विरोध कर रहे हैं ।


इस पुरूषवादी मानसिकता के खिलाफ राजनीतिक दलो से हटकर स्वतंत्र संगठनो तथा स्वयं सेवी संस्थाओ को व्यापक अभियान चलाने की आवश्यकता है। यह संस्कृति तथा राजनीति दोनो तरह के बदलाव के लिए होगा। तभी स्त्रियाँ  अपनी आजादी की ओर एक कदम आगे बढ़ेगी।    


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