Saturday, March 26, 2016

जे.एन.यू विवाद से निकला प्रतिरोध - संभावनायें और सीमायें

- जावेद अनीस

इस समय देश में जो कुछ भी हो रहा है उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता है, राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह  पर बहस छिड़ी है और संघ के राष्ट्रवाद की परिभाषा को थोपने की कोशिश की जा रही है, एक तरह से इसके आधार पर विपरीत विचारधारा और आवाजों को देशद्रोही के तमगे से नवाजा जा रहा है. इसकी आंच ने सियासत और मीडिया के साथ समाज को भी अपने घेरे में ले लिया है. इतिहासकार रोमिला थापर इसे धार्मिक राष्ट्रवाद और सेक्युलर राष्ट्रवाद के बीच की लडाई मानती हैं. इस पूरे विवाद के केंद्र में देश के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों में से एक जेएनयू है जिसे एक अखाड़ा बना दिया गया है.

पूरे विवाद की शुरुआत बीते नौ फरवरी को हुई जब अतिवादी वाम संगठन डीएसयू के पूर्व सदस्यों द्वारा जेएनयू परिसर में अफजल गुरू की फांसी के विरोध में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया और कुछ टी.वी. चैनलों द्वारा दावा किया गया कि इसमें कथित रूप से भारत-विरोधी नारे लगाये गये हैं. बाद में जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ दिनों बाद उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य की भी गिरफ्तारी हुई. कन्हैया को छह महीने की सशर्त अंतरिम ज़मानत मिल चुकी है.ज़मानत के बाद जिस तरह से कन्हैया कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए लगातार संघ परिवार और मोदी सरकार को वैचारिक रूप से निशाना बनाया है उससे कन्हैया के शुभचिंतकों के साथ-साथ उनके विरोधी भी हैरान है और उनकी गिरफ्तारी को बड़ी भूल बता रहे हैं,  उनकी जोशीली और सटीक तकरीर इतनी असरदार दी थी कि टी.वी. चैनलों द्वारा इसका प्रसारण कई बार किया गया और उनकी बातों को देश के सभी हिस्सों में सुना-समझा गया. इधर लेफ्ट वालों को लग रहा है कि उन्हें एक नया सितारा बन गया है तो दूसरी तरफ संघ के लोग उन्हें चूहा भी कह रहे हैं.
इस पूरे प्रकरण में एआईएसएफ  के सदस्य कन्हैया कुमार की हड़बड़ी में की गयी गिरफ्तारी,कुछ चैनलों की भूमिका और वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों की इस पूरे मसले में तत्परता ने कई सवाल खड़े किये हैं, कोई इसे लाल गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू पर भगवा नियंत्रण की कवायद बता रहा है तो  कोई कह रहा है कि यह सब रोहित के मसले से ध्यान हटाने के लिए किया गया है, कुछ लोग इसे संघ परिवार  की नयी परियोजना बता रहे हैं जो संघ के राष्ट्रवाद के परिभाषा के आधार पर जनमत तैयार करने की उसकी लम्बी रणनीति का एक हिस्सा  है और  जिसका टकराव स्वंत्रता आन्दोलन से निकले “आधुनिक भारत की विचार से है. कुछ भी हो इन सबके बीच आज देश दो धड़ों में बंटा हुआ साफ़ नजर रहा है. यह एक वैचारिक लड़ाई है जो भारत को एक सेक्युलर और उग्र हिन्दू राष्ट्र के आधार पर देखने वालों के बीच है.  

Saturday, March 19, 2016

आज की दुनिया में साम्राज्यवाद


सन्दर्भ- लेनिन का लेख "साम्राज्यवाद ,पूंजीवाद चरम अवस्था" के सौ वर्ष

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेनिन ने अपना प्रसिद्ध निबन्ध साम्राज्यवाद पॅूजीवाद की चरम अवस्थाका लेखन जनवरी-जून 1916 में -ज्यूरिख स्विटजरलैण्डमें किया था। लेनिन ने पॅूजीवाद के विकास में उत्पन्न हो रही नयी परिघटनाओ को प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने से बहुत पहले ही देख लिया था। 19वीं शती के आठवे दशक के पूर्व पूंजीवाद स्वतंत्र प्रतियोगिता की मंजिल में था। इसके बाद स्वतंत्र प्रतियोगिता निर्बाध गति से एकाधिकार के रूप में विकसित हो गयी। लेनिन इस लेख में यह सिद्ध किया कि (1914-18) का प्रथम विश्व युद्ध दोनो पक्षो की ओर से साम्राज्यवादी युद्ध था। यह युद्ध दुनिया के बॅटवारे के लिए ,उपनिवेशो ,वित्तिय पूँजी के प्रभाव क्षेत्रो और पूँजी के विभाजन पुर्नविभाजन के लिए लड़ा गया था। यह आधुनिक पैमाने पर इजारेदार पूँजीवाद का नतीजा है और इस नतीजे से साबित होता है कि ऐसी अवस्था के अन्दर जब तक उत्पादन के साधनो पर निजी स्वामित्व का अस्तित्व है, साम्राज्यवादी युद्धो का होना अनिवार्य है। पूँजीवाद आज विकसित होकर मुट्ठीभर ’’उन्नत ’’ देशो द्वारा दुनिया की आबादी की विशाल बहुसंख्या के औपनिवेशिक उत्पीड़न और वित्तिय नागपाश की विश्वब्यापी व्यवस्था का रूप धारण कर चुका है। ’’लूट के माल ’’का बॅटवारा सिर से पैर तक हथियारो से लैस दो तीन शक्तिशाली लुटेरो (अमेरिका,ब्रिटेन,जापान) में हो रहा है। जो अपने लूट के माल के बॅटवारे के लिए अपनी लड़ाई में सारी दुनिया को घसीट रहे हैं।  ( लेनिन की रचना साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरम अवस्था से उदधृत )।

साम्राज्यवाद का उदय और उसकी आर्थिक ,राजनैतिक अभिलाक्षणिकतायें 

विश्व इतिहास के इस पूरे विकास प्रक्रिया का सार संकलन करते हुए इस युग की अभिलाक्षणिक विशिष्टताओं के रूप में कुछ प्रमुख तथ्यो को रेखंाकित किया जा सकता है। पहला इस दौरान पूँजी ने पूरे विश्व को अपने आधीन कर लिया। दूसरा पश्चिमी यूरोप ,अमेरिका और जापान को मिलाकर पूंजीवादी विश्व विकसित हुआ। तीसरा इन देशो में पूँजीवादी राष्ट्रीय राज्यो का उदय हुआ। चैथा दुनिया का उपनिवेशो में बॅटवारा हो गया। एशिया ,अफ्रीका ,लैटिन अमेरिका के देश किसी न किसी पूंजीवादी देश के उपनिवेश बन गये। पाचवां इस दौरान पॅूजीवादी देशो ने व्यापार से औपनिवेशिक लूट के साथ पूँजी के निर्यात तक की यात्रा पूरी की। पूँजी ने उपनिवेशो में प्रवेश किया और हजारो वर्षो से चली आ रही इन देशों की प्राकृतिक अर्थव्यवस्था को तोड़ डाला, तथा एक नयी औपनिवेशिक व्यवस्था खड़ी की गयी जिसमें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली बाधित एवं सीमित ढंग से केवल उस हद तक विकसित की गयी जिस हद तक वह उपनिवेशवादियों के अनुकूल हो। इन देशो के सामंतवाद ने अर्द्धसामन्तवाद की शक्ल अख्तियार कर ली। दोनो प्रणालिया विद्यमान रही , पर सामन्तवाद प्रधान बना रहा। छठा इस दौरान दुनिया में तीन तरह की सामाजिक आर्थिक ढ़ांचे विद्यमान रहे। पहला पॅजीवादी सामाजिक आर्थिक ढ़ांचा जो पश्चिमी यूरोप अमेरिका और जापान में मौजूद था। 

Wednesday, March 16, 2016

They then came for ..

- Subhash Gatade


Tree Wants to be Calm
But Wind Will Not Stop !
-Jose Maria Sison
( Filipino Revolutionary and Poet)


Whether all the leading public intellectuals of our times have suddenly decided to go for a break – now that Kanhaiya Kumar is out of jail – or are thinking that the impending storm would peter away on its own. Anyone who has closely followed the public hounding of two of the finest human beings of our times – Prof Nivedita Menon and Gauhar Raza – and the silence which has followed with it ( barring a statement signed by many and few articles here and there on some webmagazines ) would understand what does that mean. While Prof Menon is being targetted because of airing of selective quotes from one of her lectures, Gauhar has been put under the scanner because of his participation in Indo-Pak mushaira. It is clear that one of his poems – focussing on the dangerous cocktail of religion and politics – which he recited there, has infuriated them.
Here also the same TV channel is in focus which neither has any qualms in exhibiting its proximity with the ruling establishment nor has ever faced any moral dilemma in presenting doctored videos in painting JNU as a den of ‘anti-nationals’.
It is a dreary scenario but as things are unfolding before us, in this neoliberal times, all talk of media being a watchdog of democracy have started appearing unbelievable. ( Let me emphasise that there are few noble exceptions also.) Perhaps we seem to be entering a period where the boundaries between media and the ruling elite have suddenly started appearing fuzzy or seem to be crumbling to say the least.
Neither Prof Menon nor Gauhar Raza need any introduction but looking at the fact that a conscious attempt is on to pigeonhole them in a particular way and deny their work as writers, scholars, activists, documentary makers it is important to state a few things.
Leading academic and activist Prof Menon, teaches Political Thought at Jawaharlal Nehru University, Delhi and her major publications include ‘Seeing Like a Feminist’, ‘Power and Contestation: India since 1989 (co-authored with Aditya Nigam),’ ‘Recovering Subversion: Feminist Politics Beyond The Law (2004)’, ‘Gender and Politics in India,’ (ed.). She has been an active commentator on the blog kafila.org, and has been active with citizen’s forums in Delhi around secularism, worker’s and women’s rights, sexuality and in opposition to the nuclear bomb. Scientist by profession and a Urdu poet by choice Gauhar is a long time social activist and documentary filmmaker. Known for his films like ‘Jung-e-Azadi’ and ‘Inqilaab’ – based on Bhagat Singh, Gauhar is working to popularize the understanding of science among general public.
As any impartial observer can see both of them ‘rightly suit’ the self-proclaimed ‘nationalist’ brigade who are ready to go to any extent to paint someone as ‘anti-national’. Prof Menon belongs to JNU whereas Gauhar is married to Shabnam Hashmi, who has been a leading voice of the anti-communal movement.

और फिर वे मेरे लिए आए ..

-सुभाष गाताडे



पेड़ खामोश होना चाहते हैं
मगर हवाएं हैं कि रूकती नहीं हैं


जोस मारिया सिसोन
(फिलीपिनो इन्कलाबी एवं कवि )


क्या हमारे वक्त़ के तमाम अग्रणी बुद्धिजीवी, जो असहमति के आवाज़ों के पक्षधर रहते आए हैं, बरबस अवकाश पर चले गए हैं - अब जबकि कन्हैया कुमार जेल से बाहर निकल कर आया है ? या वह सोच रहे हैं कि जो तूफां उठा है वह अपने आप थम जाएगा। 

दरअसल जिस किसी ने हमारे समय की दो बेहद उम्दा शख्सियतों के साथ - प्रोफेसर निवेदिता मेनन और गौहर रज़ा - के खिलाफ चल रही सार्वजनिक कुत्साप्रचार एवं धमकियों की मुहिम को नज़दीकी से देखा है, और उसके बाद भी जिस तरह की चुप्पी सामने आ रही है / भले ही एकाध-दो बयान जारी हुए हों या कुछ प्रतिबद्ध कलमघिस्सुओं के लेख इधर उधर कहीं वेबपत्रिकाओं में नज़र आए हों/ उसे देखते हुए यही बात कही जा सकती है। प्रोफेसर निवेदिता मेनन को इस तरह निशाना बनाया गया है कि सन्दर्भ से काट कर उनके व्याख्यानों के चुनिन्दा उद्धरणों को सोशल मीडिया पर प्रसारित करके उन्हें एण्टी नेशनलअर्थात राष्टद्रोही घोषित किया जा सके जबकि गौहर रज़ा पर गाज़ इसलिए गिरी है कि उन्होंने दिल्ली में आयोजित भारत-पाक मुशायरे में - जिसे शंकर शाद मुशायरा के तौर पर जाना जाता है - उन्होंने न केवल शिरकत की बल्कि वहां धर्म और राजनीति के खतरनाक संश्रय पर उन्होंने जो कविता पढ़ी, वह शायद भक्तोंको नागवार गुजरी है।

ध्यान देनेलायक बात है कि यहां पर भी वही टीवी चैनल फोकस में है, जिस पर यह आरोप भी लगे हैं कि उसने जेएनयू /जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली/प्रसंग में न केवल ऐसे विडिओ प्रस्तुत किए जिनके साथ छेड़छाड़ की गयी थी ताकि देश के इस अग्रणी विश्वविद्यालय की छवि को बिगाड़ा जा सके। उपरोक्त चैनल को देश की सत्ताधारी पार्टी से अपनी नजदीकी दिखाने में भी कोई गुरेज नहीं है।

निश्चित ही यह डरावना द्रश्य है, मगर जैसे कि चीजे़ घटित हो रही हैं, उसे देखते हुए यही कहने का मन कर रहा है कि नवउदारवाद के समय में, मीडिया के जनतंत्रा के प्रहरी होने की बात अविश्वसनीयसी लगने लगी है। / हां कुछ अपवाद अवश्य हैं /। शायद हम ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं कि मीडिया और सत्ताधारी जमात के बीच की दीवार अचानक फुसफुसी मालूम पड़ने लगी है या गिरती दिखाई दे रही है।

न प्रोफेसर निवेदिता मेनन और न ही गौहर रज़ा के लिए किसी परिचय की आवश्यकता है, मगर इस बात को देखते हुए कि एक सचेत प्रयास जारी है ताकि उन्हें खास ढंग से प्रोजेक्ट किया जा सके और लेखक, विद्वान, एक्टिविस्ट, डाक्युमेण्टरी निर्माता जैसी उनकी विविध पहचानों को धुंधला किया जा सके, इसलिए चन्द बातें कहना जरूरी है।

अग्रणी विदुषी एवं कार्यकर्ती प्रोफेसर मेनन, फिलवक्त जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीतिक चिन्तन पढ़ाती हैं और उनकी प्रमुख किताबों का नाम है सीइंग लाइक ए फेमिनिस्ट’ /2012/, ‘पॉवर एण्ड कान्टेस्टेशन: इंडिया सिन्स 1989/2007/, ‘रिकवरिंग सबवर्जन’ /2004/, जेण्डर एण्ड पालिटिक्स इन इंडिया/सम्पादन/, आदि। वह काफिला आर्ग ब्लाक पर नियमित लेखन करती हैं और धर्मनिरपेक्षता, महिला एवं मजदूर अधिकार, यौनिकता एवं नाभिकीय बम जैसे मुददों पर दिल्ली में बन रही नागरिक पहलकदमियों में हिस्सेदारी करती आयी हैं। एक वैज्ञानिक के तौर पर सक्रिय एवं साथ ही साथ उर्दू शायरी में भी उंचा मुक़ाम हासिल किए गौहर रज़ा लम्बे समय से सामाजिक कार्यों ेमें सक्रिय रहते आए हैं। एक डाक्युमेण्टरी फिल्म निर्माता के तौर पर उन्होंने कई फिल्मों का निर्माण किया है जिनमें से प्रमुख रहे हैं जंगे आज़ादीऔर भगतसिंह के जीवन पर आधारित इन्कलाब। गौहर आम लोगों में विज्ञान की समझदारी को लोकप्रिय बनाने के लिए भी सक्रिय हैं।

जैसा कि कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति बता सकता है कि स्वयंभू राष्टवादियों को - जो किसी को भी एण्टी नेशनल साबित करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं - उनके लिए यह दोनों ही शख्सियतें बिल्कुल मुफीद बैठती हैं। प्रोफेसर मेनन जनेवि में प्रोफेसर हैं, जिसे बदनाम करने की संगठित मुहिम सत्ताधारी इदारों की तरफ से चल रही है, जबकि गौहर शबनम हाशमी के पति हैं, जो साम्प्रदायिकता विरोधी मुहिम की जानीमानी शख्सियत हैं।

निश्चित ही हिन्दुत्व की असमावेशी विचारधारा से ताल्लुक रखनेवाले तूफानी दस्तों को लगता है कि ऐसी हरकतों से वह अपने खुद के विवादास्पद अतीत पर परदा डाले रख सकते हैं, जबकि उनके राजनीतिक पुरखों ने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दिनों में बर्तानवी  शासकों के सामने दंडवत करना ही कबूल किया था और उन दिनों उठे जनान्दोलनों से सचेत दूरी बनायी थी। दरअसल यह उनकी मासूम समझदारी है कि कथित राष्टद्रोहियों के खिलाफ अपने बाहुबल का प्रयोग करके वह आज़ादी के वास्तविक सेनानियों की नैतिक आभा के दावेदार बन सकेंगे।

इस पूरे मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अंग्रेजी अख़बार द टिब्युनका सम्पादकीय द एनिमी विथिनशीर्षक के तहत इस बात को रेखांकित करता है कि दक्षिणपंथ किस तरह भविष्य के विमर्श को ढालना चाह रहा है।  वह कहता है:

...एक के बाद एक सेक्युलर लोगों को निशाना बनाने के प्राथमिक कारणों को संघ की इस सालाना बैठक में उजागर किया गया है। दरअसल विश्वविद्यालयों में राष्टविरोधीगतिविधियों पर और देश की बरबादी के नारोंके खिलाफ कार्रवाई करने की बात करके वह केसरिया एजेण्डा के खिलाफ जो रचनात्मक और तर्कशील विरोध खड़ा हो रहा है, उस प्राथमिक रास्ते को बन्द करना चाह रहा है। राष्टीय स्वयंसेवक संघ ने अपने एजेण्डा को खोल कर रख दिया है।

यह समझने की जरूरत है कि इन दक्षिणपंथियों के निशाने पर आने के लिए यह कोई जरूरी नहीं कि आप कम्युनिस्ट विचारधारा से ताल्लुक रखते हों या इस्लामिस्ट हों।

Monday, March 7, 2016

Hate as Harmony – Law and Order under Saffrons

-  Subhash Gatade

Muslims were equated to “demons” and “descendants of Ravana”, and warned of a “final battle”, as the Sangh Parivar held a condolence meeting here for VHP worker Arun Mahaur, who was killed last week allegedly by some Muslim youths. Among those present on the dais were Union Minister of State, HRD, and BJP Agra MP Ram Shankar Katheria as well as the BJP’s Fatehpur Sikri MP Babu Lal, apart from other party local leaders, who joined in the threats to Muslims. Speaker after speaker urged Hindus to “corner Muslims and destroy the demons (rakshas)”, while declaring that “all preparations” had been made to effect “badla (revenge)” before the 13th-day death rituals for Mahaur. See Indian Express

What does someone do in the winter of one’s own life when you discover that the values you cherished, the principles for which you fought for have suddenly lost their meaning and the world  before you is turning upside down ?
Perhaps you express your anguish to your near and dear ones or write a letter about the deteriorating situation around you in your favourite newspaper or as a last resort appeal to the custodians of the constitution that how you are ‘forced to hang your head in shame’.
Admiral Ramdas, who has served Indian Military for more than four decades and has remained socially active since then, followed his voice of conscience. Deeply pained by the developments around the eighty plus year retired admiral wrote a letter to the President and Prime Minister of India few months back and had reminded them of their ‘[b]ounden duty that the elected Government of this nation must honour the rights of every citizen of this land as amply spelled out in the Preamble of the Constitution and further elaborated in the Directive Principles of state policy.’Former Navy chief open letter to President & PM-Modi
One does not know whether the President and the Prime Minister found time to reply to his concerns or not.
And now comes the ‘Citizens Appeal’ signed by former judges and IPS officers, scientists and businessmen – a list which includes Justice PB Sawant, Justice Hosbet Suresh, Justice Sachar and Julio Ribeiro and others–reiterating similar concerns albeit addressed to the to the Chief Justice and all other Judges of the Supreme Court of India urging them to take suo moto constitutional action on the issue of alarming and threatening statements being made by persons currently in powerful constitutional positions within the Union government. The said appeal which provides shocking details of the speech made by Ram Shankar Katheriya in Agra, where he had gone to address a condolence meeting over the murder of a VHP activist, also includes details of many such examples of hate speeches made earlier by other footsoldiers or leaders of Hindutva Brigade. Citizens Appeal to the SC for Suo Motu Action against Hate Speech. Link of Citizens Appeal to the SC for Suo Motu Action against Hate Speech
Underlining the fact that fundamental rights of the people under Article 14, 19, 21 and 25 of the Indian Constitution need to be protected it also urges that “[t]he minister, the MP, the MLA and all other culprits need to be punished for violating their constitutional duty under Article 51A(e) to promote harmony and the spirit of common brotherhood amongst all the people of India transcending religious diversities. ”
As things stand while cases have been filed against other leaders of the Hindutva Brigade after much pressure who participated in the meeting and gave vent to their ideas, no such case has been filed against the minister. Thanks to the Union Home Minister Rajnath Singh who dismissed Opposition demands to sack Katheria for his hate speech in Agra last week, as he did not find anything “objectionable” in the Agra MP’s remarks. One learns that he is being projected as a counter to Mayawati.
While it is for the highest judiciary to decide how it wants to react to ‘Citizens Appeal’ -specifically regarding suo motto action against hate speech is concerned, if one goes by Justice Ahmadi’s observations – who was Chief Justice of the Supreme Court (1994-97) – made in a thought provoking presentation few years back it has been found to be wanting on that score.
It is not that provisions in law have been left unambiguous so that no action can be taken against such rabble-rousers.
Under Indian Law promoting enmity between different groups on grounds of religion is a recognized criminal offence. The Indian Penal Code (IPC) prescribes criminal prosecution for “wantonly giving provocation with intent to cause riot” (section 153); “promoting enmity between different groups on grounds of religion” (section 153A); “imputations, assertions prejudicial to national integration” (section 153B); “uttering words with deliberate intent to wound the religious feelings of any person” (section 298); “statements conducing to public mischief” (section 505 (1), b and c); and “statements creating or promoting enmity, hatred or ill-will between classes (section505(2). Section 108 of the Code of Criminal Procedure, in addition, allows an Executive Magistrate to initiate action against a person violating section 153A or 153B of the IPC.”

Friday, March 4, 2016

Contract Workers in Delhi University take to the Street: Theka Pratha aur Jaativad se Maange Azaadi!

- Delhi University Theka Mazdoor Manch (DUTMM)

STUDENTS, TEACHERS AND WORKERS RAISE UNITED VOICE AGAINST CONTRACTUALIZATION OF LABOUR AND CASTEIST PRACTICES AT DELHI UNIVERSITY. 

Over 300 workers, students and teachers joined at a protest meeting followed by a rally this afternoon to register their discontent/protest over unfair labour practices at the University, taking ahead the case of the ten sanitation contract workers who were illegally removed from UGHG hostel. The workers mostly Dalit and women are on protest for last 63 days, and hold complaints against the hostel authorities on the grounds of caste discrimination. 

The meeting was held on a joint call by Delhi University Theka Mazdoor Manch (DUTMM), Delhi University & Colleges SC/ST Employees Welfare Association, Democratic Karmachari Front (DKF), New Socialist Initiative, DU, Pinjratod campaign and Saamajik Nyay Morcha. Members of DUKU including the office bearers, Teachers along with DUTA President, various trade union activists and Maruti contract workers’ struggle extended their solidarity. Delhi University Theka Majdoor Manch (a collective of students, workers and teachers) of which the ten contract workers are the members proposed that there may be made immediate changes in the constitution of permanent workers’ Unions and make provision for contract workers to take a united struggle together; given the dwindling number of permanent workers at the University as a result of increased contractualization. Let apart a Union of contract workers at the University, who constitute over half the workforce at the University, there is no redressal mechanism for contract workers. The University administration has persistently abdicated itself from its responsibility as the Principal Employer by recruiting third part agencies for services like security, sanitation, mess, various administrative and technical services etc. that is a work of perennial nature and lawfully qualifies for permanent employment. Workers work for the University for decades with no official documents. It is appalling that even minimal legal requirements such as minimum wages, ESI identity and health cards, Provident Fund benefits and dignified treatment at workplace have been denied to workers in this university. 

A delegation of students and representatives of respective organizations went to meet and submit a Memorandum (Please find pasted below) to team from the University administration head by the Proctor. We demanded to :

1. Reinstate all Dalit contract workers at UGHG immediately. 

2. Set up an Inquiry Committee to look into unfair labour practices and rampant caste atrocities in UGHG with fair representation on its board, given that most of the workers are Dalit, Women’s and from other marginalized sections. Until the inquiry committee submits its report, the hostel authorities must step down from their positions so that workers get immediate relief at the work place. 

3. Compensate all workers for the loss of wages. Pending wages of over last three years must be paid to them with interest.

4. Implement equal pay for equal work and offer ESI and PF facilities to all contract workers across the University. 

5. Regularise all the contract workers who are working for more than six months, employed directly or through any agency and do away with sham contracts. 

6. Institute a complaints and redressal mechanism for all workers at the University level. Guidelines for Fair Labour Practices must be immediately enforced by the University. 

The Delegation constituted of different organizations, exposed how various contract agencies in the university are exploiting the workers and in many instances paying quite below the minimum wages. Most of the contract workers do not get ESI and PF. The specific case of Sulabh International was brought in light where university has gone in a illegal contract for large number of sanitation workers. Sulabh International claims itself as a voluntary social organization and cannot be brought under any labour law. But they fail to answer why and what stops them to pay at least minimum wages to its workers. University officials tried to restrict the whole matter as an issue between the agencies and its workers but were told in strong words that as principal employer they are responsible for plight of contract workers in the university. The delegation asked the Proctor and University to make sure that they follow labour laws and pay all the workers according to the law. University officials said that they will look into the matter that how NGOs got full time labour contracts and also the complaints of non-payment of minimum wages of other workers. The delegation also criticized the University of not taking up the issue of caste based discrimination seriously. They were reminded of many cases that DUTMM and other organisations had registered regarding the undignified workplaces where time and again workers are subject to caste discrimination.

Wednesday, March 2, 2016

[Protest Rally Tomorrow] Fight Against Caste Based Discrimination And Contractualization in Delhi University

- Delhi University Theka Mazdoor Manch (DUTMM)

Support the struggle of contract workers against illegal removal and casteist practices at U-G Hostels for Girls!

Join PROTEST MEETING AND RALLY
On 3rd March,2016, 2:30 PM
Arts Faculty (Rally towards VC Office)

For over the last two months, ten contract workers (mostly dalit and women) of the Undergraduate Hostel for Girls (Dhaka Complex) of Delhi University with the Delhi University ThekaMazdoorManch (DUTMM) have been sitting outside the hostel gates demanding a dignified workplace and equal pay for equal work. Their contract with Sulabh International (subcontracted by Delhi University) has been illegally terminated. The workers who have been targeted and removed from their posts as safaikaramcharis (sanitation workers) also hold complaints of caste atrocities and unfair labour practices against the hostel authorities. The University as the Principal employer of security and sanitation services runs a long history in dealing with such issues by blatant targeting and removal of workers with the help of contractors. We at DUTMM- a collective of teachers, students and workers,has engaged over series of such instances in the last few years at the University.

The University of Delhi as an institution employs large number of workers who engage in a range of work from sanitation, security, mess, canteens, libraries, labs, administrative services etc. However, University completely abdicates itself from any responsibility towards these workers. University deprives them of even the basic legal rights by recruiting third party agencies/contractors for work that is perennial in nature, which by law demands sanctioned posts and permanent employment. The University-Contractor nexus is not only exploitative but also opens a huge arena of corruption. Hostel authorities force contract workers to work in their residences in addition to regular work. Three different kinds of wages are paid for the same kind of work. Workers work for the University for decades with no official documents. It is appalling that even minimal legal requirements such as minimum wages, ESI identity and health cards, Provident Fund benefits and dignified treatment have been denied to workers in this university. Contract workers currently work under constant threat of dismissal, victimisation and harassment. The University of Delhi has no mechanism to deal with such unfair and illegal labour practices that also perpetuate caste atrocities.

With over half of the workforce at the University being contractualized, workers are subject to precarious conditions and insecurity. The University gives full time labour contracts to “voluntary” social organizations like Sulabh International, who give “honorarium” for social work and not wages for labour. Hundreds of sanitation workers employed by the University through Sulabh International are forced to do what is legally identified as bonded labour. The University ,yet hires such agencies that have no respect for law. Sulabh International claims of doing social service by bringing dalits to the mainstream by complementing the University’s project of privatisation and paying the workers far below their minimum wage.