Thursday, September 15, 2016

बदलता वैश्विक परिवेश और भारत अमेरिका सैन्य करार

- स्वदेश कुमार सिन्हा

भारत और अमेरिका के मध्य अब तक का सबसे बड़ा सैन्य करार आज सम्पूर्ण मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है। जो लोग अमेरिका तथा भारत के संबंधों की जटिलता के इतिहास से परिचित हैं उन्हे यह भी ज्ञात होगा भी सन् 2008 में अमेरिकी संविधान की धारा -123 के अन्तर्गत निर्मित ’हाइड एक्ट’ के अन्तर्गत भारत अमेरिकी परमाणु उर्जा समझौते को वामपंथियों ने राष्ट्रीय हितो की तिलांजलि देकर अमेरिकी दबाव में होने वाला समझौता कहा था तथा भाजपा के साथ मिलकर तत्कालीन कांग्रेसी सरकर को गिराने में भी कोई परहेज नही किया था। 

आज एकाएक कौन सा बृहद वैश्विक परिवर्तन हो गया कि भाजपा ने अमेरिका के साथ इतना बड़ा सैन्य करार कर लिया तथा जिसका संसद और सम्पूर्ण देश में कोई विशेष विरोध तक नही हुआ। इस समझौते से पूर्व भी दोनो देशो के बीच इसी वर्ष कई महत्वपूर्ण रणनैतिक सैन्य समझौते हुए हैं । (लाजिस्टिक सपोर्ट एग्रीमेन्ट कम्युनिकेशन इण्टरओपरीबिलिटी एण्ड सिक्युरिटी मेमोरण्डम एण्ड एग्रीमेण्ट आर बेसिक एक्सचेन्ज एण्ड कारपोरेशन एग्रीमेन्ट ) यह जून 2005 में हुए भारत अमेरिकी राजनीतिक साझेदारी की अगली कड़ी है। सन् 2013 में अमेरिकी पालिसी थिंक टैंक संस्था ’बुकलिन इन्स्टीटयूशन और इस साल कारनेगी इनडोमेन्ट आफ इन्टरनेशनल पीस’ का कार्यालय खुलना भारत की विदेश नीति को अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप ढ़ालने की दिशा में बढ़ाया गया कदम बताया जा रहा है। परन्तु इस वर्ष सितम्बर के पहले सप्ताह में भारत अमेरिका के बीच हुआ अब तक का सबसे बड़ा सैन्य करार ’लाॅजिरिस्क एक्सचेन्ज मेमोरण्डम आफ एग्रीमेण्ट (लेमोए) जो बृहद तथा दूरगामी परिणाम देने वाला है।

इस करार के अन्तर्गत दोनो देश मरम्मत तथा आपूर्ति के लिए एक दूसरे के सैन्य ठिकानो तथा सुविधाओ का इस्तेमाल कर सकेंगे , विशेष रूप से एक दूसरे के वायु सेना का प्रयोग भी युद्ध के दौरान कर सकेंगे। इस सम्बन्ध में अमेरिकी विदेश मंत्री ’एश्टन कार्टर ’ का कथन है ’हमने भारत को मुख्य रक्षा सहयोगी का दर्जा दिया है। अमेरिका रणनीतिक और तकनीकी क्षेत्र में भारत का सहयोग बढ़ायेगा। यह विगत पचास साल के इतिहास में बड़ा बदलाव है। भारतीय विदेश मंत्री मनोहर पार्रिकर का कथन है ’इसमें अमेरिका का भारत में सैन्य ठिकाने बनाने संबंधी किसी भी प्रकार की गतिविधि का कोई प्राविधान नही है। इस समझौते को लेकर देश तथा विदेशों में कई तरह की प्रतिक्रियाये हो रही है। भाजपा तथा संघ परिवार यह कह रहे हैं कि यह देश की बढ़ती ताकत का परिचायक है। बहुत से वामपंथी विचारक तथा उनकी पत्र पत्रिकाएँ इस समझौते को एक नई गुलामी का दस्तावेज बता रहे हैं । यह स्मरण करने की बात है कि सन् 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान चन्द्रशेखर सरकार द्वारा अमेरिकी विमानो में तेल भरने की घटना पर देश में बवाल मच गया था। सन् 2003 में अमेरिकी दबाव के बाद भी अटल सरकार इराक के खिलाफ लड़ाई के लिए सेना भेजने की हिम्मत नही जुटा पाई थी।


क्या यह समझौते से यह निष्कर्ष निकाल लिया जाये कि भारत अमेरिका की विस्तारवादी नीति का मोहरा बन गया है ? तथा उसकी स्थिति उन देशो की तरह हो जायेगी जहाँ अमेरिकी फौजे मौजूद हैं । परन्तु इस निष्कर्ष पर पहुचना अभी जल्दीबाजी होगी। इस सम्बन्ध में पाकिस्तानी अखबार ’डान’ में छपे एक लेख अनुसार ’इस समझौते से चीन तथा पाकिस्तान पर सीधा असर पड़ेगा अगर भारत ’ड्रोन’ तथा जेट विमान तकनीकी हासिल करता है तो वह जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनो पर निशाना साध सकता है।’ वास्तव में हमें इस सैन्य समझौते की असली हकीकत तथा इससे पड़ने वाले वैश्विक प्रभावो की पड़ताल करने के लिए पूर्व इतिहास में झांकना होगा। इसका मल्यांकन ’शीतकालीन विश्व’’ के मुहावरो से नही किया जा सकता जैसा कि अनेक मार्क्सवादी विचारक तथा संगठन कर रहे हैं । 

शीत युद्धकालीन विश्व और अमेरिका:- सन् 1945 के करीब द्वितीय महायुद्ध के समाप्ति के पश्चात दुनिया स्पष्ट रूप से दो खेमो में बॅट गयी एक ओर सोवियत संघ तथा उसके सहयोगी राष्ट्र थे जे विश्वयुद्ध के वास्तविक विजेता होकर उभरे थे। दूसरी ओर संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके गुट के देश थे , जो दुनिया भर में बढ़ते हुए साम्यवादी प्रभाव से भयभीत थे। इस प्रकार करीब-कमीब सारी दुनिया दो सैनिक गुटो में बॅट गयी थी। एक ओर अमेरिका के नेतृत्व में नाटो सैनिक गुट ’दूसरी ओर वारसा सन्धि ’गुट के देश थे। दुनिया भर में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान तथा उसकी कुख्यात गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. दुनिया भर में अरबो खरबों डालर तो झौक ही रही थी साथ-साथ लोक प्रिय राष्ट्रवादी तथा साम्यवादी नेताओ की हत्याये तक करवा रही थी। जिसमें कांगो के राष्ट्रवादी नेता पैट्रिक लुबम्बा चिली के साम्यवादी नेता अलेन्दे तथा बोलोविया के चेग्वारा प्रमुख थे। इण्डोनेशिया में लाखो कम्युस्टिो के कत्लेआम में भी अमेरिका की प्रत्यक्ष भागीदारी भी बतलायी जाती है। इसके विपरित सोवियत संघ नवस्वाधीन देशो का मित्र बनकर उभरा था। सन् 1947 में स्वाधीन हुए भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने मिश्र के नासिर तथा युगोस्लोवाकिया के टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्षता की नीति की घोषणा की। यानी विकल्पो का विस्तार। उस समय भारत में जिन शक्तियों ने सत्ता संभाली थी उन्हे जहाँ से मिले पूँजी तथा भौतिक संसाधन चाहिए थी और यथा संभव अपना स्वतंत्र विकास ऐसे में सबसे अधिक विकल्प मिलते थे बिना किसी सैनिक गुट में शामिल हुए बिना। इसलिए उस समय गुटनरपेक्षता भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए सर्वाधिक अनुकूल थी। 

भारतीय शासक वर्गो ने दोनो गुटो से हर तरह की सैनिक तथा आर्थिक सहायता प्राप्त की। सन् 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान जब चीन की बढ़ती सेना तेजपुर असम तक पहुँच गयी तब जवाहर लाल नेहरू द्वारा अमेरिका से सैनिक सहायता मांगने पर चीन को पीछे हटना पड़ा था। इसी रणनीति के तहत नयी दिल्ली की इजाजत के बाद ही ’पेंटागन’ के रणनीति कारो ने ’गंगोत्री’ के पास एक ऐसा उपकरण लगाया था जो चीनी धरती पर होने वाली किसी भी परमाणविक हलचलो का पता लगा सके। बाद में यह भी आरोप लगे कि इस उपकरण से जहरीले रेडियो धर्मी पदार्थो के रिसाव हुए , जिन्होने गंगा नदी को प्रदूषित भी किया। दूसरी ओर सन् 1954 में पाकिस्तान के अमेरिका से सैन्य सन्धि करने के जवाब में 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागाँधी ने रूस के साथ 30 वर्षीय सैनिक सन्धि की। जिसके मुताबिक भारत को खतरा होने की स्थिति में रूस भारत को अत्याधुनिक हथियारो की सप्लाई करेगा। सन् 1971 में भारत पाक युद्ध के दौरान इस समझौते के तहत रूस ने भारत की मदद की। रूसी संचार सिस्टम की मदद से ही भारतीय नौ सेना ने महतवपूर्ण सैनिक कार्यवाहियाॅ की थी। इन उदाहरणो से यह सिद्ध होता है कि शीतयुद्ध के दौरान भारतीय पूँजीपति शासक वर्ग ने दोनो गुटो से भरपूर आर्थिक तथा सैनिक सहायता प्राप्त की जो उस दौर में उसके अनुकूल थी। 

शीतयुद्ध के बाद की दुनिया तथा नये शक्ति केन्द्रो का उदयः- 90 के दशक में सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देशो में समाजवादी सत्ताओ का पतन हो गया। जिसके वाह्य से ज्यादा आन्तरिक कारण थे। 1976 में माओ की मृत्यु के बाद पूँजीवाद की पुर्नस्थापना वहां भी हो गयी। सोवियत संघ के विघटन के साथ ही वारसा सैनिक सन्धि का समापन हो गया। नाटो सैनिक संगठन का अस्तित्व जरूर था पर अब उस पर पहले जैसा अमेरिकी प्रभुत्व नही रह गया। उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड रीगन ने बड़ी दम्भ के साथ शीतयुद्ध जीत लेने का दावा किया था। उस समय अमेरिका सम्पूर्ण विश्व में एक ध्रुवीय महाशक्ति के रूप में उभरा। परन्तु यह स्थिति भी बहुत दिन तक न चल सकी। शीघ्र ही वह अपने भूतपूर्व नाटो सहयोगी मित्र देशो के साथ मध्य पूर्व में खाड़ी युद्धो में उलझ गया। दो खाड़ी युद्ध तथा 9/11 की घटना के पश्चात इराक तथा अफगानिस्तान में सैन्य कार्यवाहियों ने अमेरिका की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी। खाड़ी युद्ध में करीब 8 लाख लोग मारे गये। अमेरिका को आशा थी कि इन युद्धो के पश्चात मध्य पूर्व में उसका पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो जायेगा तथा वहां के पेट्रोलियम क्षेत्रो पर उसका कब्जा हो जायेगा। परन्तु ऐसा न हो सका। आज मध्य पूर्व का यह सम्पूर्ण इलाका सीरिया , लीबिया , अफगानिस्तान भयानक गृह युद्ध की आग में जल रहे हैं। जिसके फलस्वरूप वहां पर इस्लामिक स्टेट ’(आई0एस) ,तालिबान जैसे ढ़ेरो कट्टरवादी अतिवादी ताकतो का जन्म हुआ जो आज अमेरिका सहित सम्पूर्ण विश्व के लिए भयानक खतरा बन गये है। अमेरिका का आर्थिक ढ़ांचा युद्ध सामग्री मिसाइल टेक्नालाजी ,युद्धक विमानों के निर्माण तथा विश्व भर में उसके निर्यात पर निर्भर है। यह उसके हित में है कि दुनिया भर में युद्ध तथा गृह युद्ध चलते रहे तथा हथियारो की माॅग लगातार बनी रहे। आज इस व्यापार में इग्लैण्ड , फ्रांस,चीन,जापान भी शामिल हो गये हैं । भारत जैसा देश भी कई छोटै-छोटे देशो को हथियार बेच रहा है। इस कारण इस व्यापार में भी अमेरिकी वर्चस्व टूटता नजर आ रहा है। आज सैनिक ताकत के बल पर विश्व पर अमेरिकी वर्चस्व जरूर है उसके नेतृत्व में आज की अतिशोषक विस्तारवादी और साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था (जो आधे दर्जन से ज्यादा देशो में सैनिक हस्ताक्षेप और ड्रोन युद्धो में उलझी हुई है और जो अपने नाभिकीय हथियारो को आधुनिक बनाने में 200 अरब डालर की योजना बना रहा है। परन्तु इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि वर्चस्व की इस होड़ में आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार मुल्क भी बन गया है। चीन , भारत ,ब्राजील ,मैक्सिको भी बड़ी अर्थव्यस्थाओ के रूप में उभर रहे हैं। जिनकी आज अफ्रीका ,एशिया तथा लैटिन अमेरिकी गरीब देशो की साम्राज्यवादी लूट में अमेरिका के साथ समान भागीदारी है। कई भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अफ्रीका में प्रत्यक्ष लूट के खिलाफ जन आन्दोल भी चल रहे हैं। चीन आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होकर उभरा है। चीनी सामानो से अमेरिका सहित दुनिया भर के बाजार पटे पड़े हैं । सैनिक ताकत में भी वह बड़ी शक्ति होकर उभरा है। दक्षिणी चीन सागर में संयुक्त राष्ट्र के विरोध के बावजूद वह अपनी नौसैनिक ताकत को बढ़ा रहा है। इस कारण भारत ,वितयनाम ,वर्मा ,फीलीपिन्स जैसे देशो से उसके गम्भीर अन्र्तविरोध पैदा हो रहे हैं । 

आज अमेरिका को क्यूबा जैसे पुराने शत्रु देशो से भी उसकी अपनी शर्तो पर संम्बन्ध बनाने पड़ रहे हैं। अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की क्यूबा यात्रा इसका प्रमाण है। उत्तरी कोरिया बड़ी तेजी से परमाणु शस्त्रो का विकास कर रहा है तथा वह एक दशक के भीतर पांच परमाणु परीक्षण कर चुका है। उस पर लगाम लगाने में अमेरिका असमर्थ हो रहा है। उत्तरी कोरिया ने अभी हाल में अन्तर महाद्वीपीय बैलिेिस्टक मिसाइल का सफल परीक्षण किया है। जो उसके अनुसार ’अमेरिका तक मार कर सकती है’ ब्रिक्स ,दक्षेस , सार्क , जी0 20 जैसे संगठन भी अमेरिकी वर्चस्व को नकार रहे हैं। 2006 में गठित ब्रिक्स समूह के दशो में भारत ,चीन ,दक्षिणी अफ्रीका ,रूस सदस्य हैं। इस समूह ने 2014 में ब्रिक्स बैंक की स्थापना 50 अरब डालर से की है। यह बैंक आज अमेरिका द्वारा नियंत्रित विश्व बैंक तथा अन्र्ताष्ट्रीय मुद्राकोष केा चुनौती दे रहा हैं।

समकालीन वैश्विक यथार्थ में भारत अमेरिकी रक्षा करार:-समकालीन वैश्विक यथार्थ तेजी से बदल रहा है। अमरिका में लगातार आर्थिक सामाजिक संकट बढ़ रहे हैं । जल्दी -जल्दी आने वाली मन्दियां उसकी आर्थिक तंत्र को और संकटग्रस्त बना रही हैं। सन् 2008 में अमेरिका के ’सबप्राइम संकट’ की वजह से लाखो अमेरिकी बेरोजगार हुए इसकी वजह से एक बड़ा तबका गरीबी तथा बेरोजगारी से ग्रस्त हुआ। आज वहां पर नस्लवाद और फांसीवाद उभार पर है तथा डोनाल्ड ट्रम्प जैसे फांसीवादी नेता नवम्बर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में इस पद के प्रबल दावेदार बन गये हैं। आज केवल अमेरिका ही नही भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में अनुदारवादी दल तथा फाँसीवादी नेताओ का उभार हो रहा है तथा उन्हे व्यापक जन समर्थन भी मिल रहा है। 

सम्पूर्ण विश्व में आज कई ’’नये शक्ति केन्द्रो’’ का उदय हो रहा है। ब्रिटेन के निकल जाने के बाद भी ’एककीकृत यूरोप’ भी बड़ी ताकत बन कर उभरा है। अभी हाल में फीलीपिन्स जो एक समय में अमेरिकी उपनिवेश भी था उसके राष्ट्रपति रोड्रिगे ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए अपशब्दो का प्रयोग किया। जब उन्होने फिलीपिन्स में हो रहे मानवधिकारो के उलंघन पर गम्भीर चिन्ता जतायी थी। यह छोटा सा उदाहरण विश्व भर में घट रही अमेरिकी लोकप्रियता का एक प्रमाण है। 

भारत अमेरिका सैन्य समझौता वास्तव में दोनो देशो की आर्थिक, राजनैतिक तथा सामरिक मजबूरियों से उपजा है। आज सम्पूर्ण विश्व में एक ’नये किस्म’ के शीतयुद्ध का आगाज हो रहा है और इसमें अमेरिका के साथ भारत भी शामिल हो गया है। आज दुनिया भर में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की नीतियों ने वंचित तबको को हाशिये पर डाल दिया है। यह परिघटना यरोप अमेरिका से लेकर तीसरी दुनिया के देशो में एक साथ घटित हो रही है। आज ये वंचित तबके सम्पूर्ण विश्व के साम्राज्यवादी , पूँजीवादी शासक वर्गो के लिए गम्भीर खतरा बन गये हैं। क्योकि इन नीतियों ने गरीब और बदहाली के महासागर में कुछ समृद्धि के टापू तथा बिलासिता की मीनारे ही खड़ी की हैं । तत्कालीक रूप से भारत अमेरिका सैन्य समझौते का उद्देश्य चीन की बढ़ती ताकतो पर लगाम लगाना हो सकता है क्योकि हिन्द महासागर में अमेरिका का शक्त्शिाली बेस ’’डिगोगार्सिया’ ही है। इस द्वीप से भारत की दूरी तीन हजार किलोमीटर और दक्षिणी चीन सागर सेयह दूरी महज पांच हजार किलोमीटर है। भारत के साथ हुए समझौते से इस समुद्री क्षेत्र में अमेरिका की ताकत और बढ़ जायेगी।यही नही प्रशान्त महासागर में भारत और अमेरिका की सक्रियता बढ़ने से चीन इस समुद्री क्षेत्र में आगे नही बढ़ पायेगा। 

इस प्रकार के नये गठबन्धन भविष्य में नये वैश्विक परिवर्तनो तथा संघर्षो को जन्म दे सकते हैं जो सम्पूर्ण विश्व के लिए खतरे के संकेत भी है।

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